'अंगारक चतुर्थी 'कि महात्म्य -कथा गणेशपुराण के उपासना खंड के ६०वे अध्याय में वर्णित है| वाह कथा संक्षेप में इस प्रकार है -"धरती माँ ने महामुनि भरद्वाज के जपा पुष्प -तुल्य अरुण पुत्र का पालन किया| सात वर्ष के बाद उन्होंने उसे महर्षि के पास पहुँचा दिया| महर्षि ने अत्यंत प्रसन्न होकर अपने पुत्र का आलिगन किया और उसका सविधि उपनयन कराकर उसे वेद- शास्त्रादी का अध्ययन कराया| फिर उन्होंने अपने प्रिय पुत्र को गणपति मन्त्र दे कर उसे गणेश जी को प्रसन्न करने के लिए आराधना करने कि आज्ञा दी|
मुनि पुत्र ने अपने पिता के चरणों में प्रणाम कर के गंगा तट पर जा कर वाह परम प्रभु गणेश जी ध्यान करते हुए भक्तिपूर्वक उनके मन्त्र का जप करने लगा| वह बालक निराहार रहकर एक सहस्त्र वर्ष तक गणेश जी के ध्यान के साथ उनका मन्त्र जपता रहा| माघ कृष्ण चतुर्थी को चन्द्रोदय होने पर दिव्य वस्त्रधारी अष्टभुज चन्द्रभाल प्रसन्न होकर प्रकट हुए|वे विविध अलंकारों से विभूषित अनेक सूर्यों से भी अधिक दीप्तिमान थे|
वरदप्रभु बोले- 'मुनि कुमार!मैं तुम्हारे ताप से बहुत प्रसन्न हूँ| तुम इच्क्षित वर मांगो|प्रसन्न धरतीपुत्र ने निवेदन किया कि "प्रभु ! आपके दुर्लभ दर्शन से मैं कृतार्थ हुआ, मेरा जीवन सफल हुआ, आप दयामय है आप ऐसा करे कि मैं स्वर्ग मेंदेवतागनकेसाथसुधापान करूं एवम मेरा नाम मेंकल्याणकरने वाला मंगल हो|"हे करुनामुर्ती मुझे आपका दर्शन माघ कृष्ण पक्ष कि चतुर्थी को हुआ अतएव यह पुण्य देने वाली संकट हरिणी हो |भगवान ने एवमस्तु कहा और बोला कि मंगल नाम है तुम्हारा इसलिए इस दिन पड़ने वाली चतुर्थी अंगारक चतुर्थी के नाम से जानी जाएगी मंगल के दिन मेरी पूजा अर्चना का फल याचक को पुर्णतः प्राप्त होगा|उनके किसी भी कार्य में बाधा नहीं आएगी|
परम कारुणिक गणेश जी को विशुद्ध प्रीतिअभीष्ट है,श्रद्धा और भक्तिपूर्वक चढ़ाया हुआ मात्र दूर्वा से भी वो प्रसन्न हो जाते है| केवल श्रद्धा हृदय से होनी चाहिए|