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मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

पुण्य से कहीं महतवपूर्ण होता है प्रेम

इस दुनिया में ज्यादातर लोगों का अपना एक लक्ष्य होता है। मंजिल के मुताबिक हर व्यक्ति अपना मार्ग चुनता है | चूंकि सब जल्दी में हैं   इसलिए जिस रास्ते पर देखो, लोग दौड़ते हुए नजर आते हैं। बाहरी दुनिया में तेजी का महत्व है और भीतर के संसार में धीमी गति की महत्ता है।


इनमें से कई लोगों का लक्ष्य परमात्मा भी है और जो लोग ईश्वर को जल्दी पाना चाहते हैं, वे शार्टकट भी ढूंढ़ते हैं। ऐसा ही एक लघु मार्ग है दान। दान में सहयोग की भावना होनी चाहिए, न की पुण्य अर्जन की। आदमी इस चक्कर में है कि दान करके पुण्य कमाओ और पुण्य की पूंजी से परमात्मा अपने वश में हो जाएगा।

दान एक हथियार बन जाता है। दानशीलता ने अहंकार और दीनता दोनों को जन्म दिया है। दोनों ही भक्ति के लिए खतरनाक हैं । यह वृत्ति सांसारिक जीवन में भी आदमी को बहकाती है क्योंकि सारा दान पुण्य के लिए किया जाता है, जबकि परमात्मा की राह में दान का मार्ग बहुत सफल नहीं कहा जा सकता।

इसीलिए संतों ने कहा है कि यह जरूरी नहीं कि जो चल पड़ा है, वह परमशक्ति तक पहुंच ही जाएगा। बारीकी से देखा जाए कि चल किस नीयत से रहे हैं। दान के पुण्य की गठरी सिर पर लादकर चलने वाले पैरों में लड़खड़ाने की संभावना बढ़ जाती है।

पुण्य अहंकार के बोझ को और बढ़ा देता है। इसलिए लक्ष्य निर्धारण के बाद जो भी मार्ग चुनें, उसमें अहंकार से बचें। दान-पुण्य के हिसाब-किताब से दुनिया में प्रतिष्ठा तो मिल सकती है, लेकिन परमात्मा मिल जाए, यह जरूरी नहीं है।

परमात्मा पुण्य नहीं प्रेम का विषय है। इसलिए लक्ष्य व्यावहारिक हो या आध्यात्मिक दोनों में ही श्रेष्ठ पथ है प्रेम का पथ, जहां दान में दया का महत्व है, पुण्य का नहीं।

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