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मंगलवार, 5 जनवरी 2010

संतुष्टि


मानव जीवन में संतोष की भावना प्रायः बहुत कम देखने को मिलती है, मनुष्य को एक वस्तु यदि मिल जाये तो तुरंत उसके हृदय में दुसरे वस्तु की इक्षा जागृत हो जाती है,ये दस्तूर हमेशा से चला आरहा है|मनुष्य में एक के बाद एक निरंतर आवश्यकताये बढती रहती है, और वो सारा जीवन इसी मायाजाल में फंसा रहता है,इसके लिए मुझे एक कहानी याद आती है जिसे मैने  कहीं पढ़ा था-
"एक बार एक सन्यासी अपने एक शिष्य को आश्रम में छोड़ कर स्वयं तपस्या करने जाते है|शिष्य उनके जाने के पश्चात नित्य नियम से उठ कर ईश्वर का ध्यान करता, भिक्षा में मिले हुए भोज्य पदार्थ से जीवन चलता सायंकाल को प्रवचन करता|शिष्य संतुष्ट था, और अपने गुरु के प्रति आभारी  था| इसी मध्य एक चूहा उस शिष्य का वस्त्र काट देता था,शिष्य बहुत परेशान हो गया तब गाँव के एक हितैषी  ने सलाह दिया कि एक बिल्ली पाल लो जिससे चूहा अंदर नहीं आ पायेगा| शिष्य ने बात मानी और बिल्ली पाल के चूहे से मुक्त  हो गया|अब बिल्ली के दूध कि

समस्या आई  तब लोगों ने सलाह दिया कि एक गाय पाल लो जिससे बिल्ली के दूध कि समस्या का समाधान हो जायेगा, गाय के आने से दूध की समस्या का समाधान तो हो गया किन्तु अब गाय के भोजन कि समस्या आई क्योकि वो दूसरों का फसल खाती थी तो शिष्य ने थोड़ी ज़मीन खरीद ली| इस प्रकार एक के बाद  एक जरूरतें बढती गयीं, और धीरे धीरे वो शिष्य एक ज़मींदार बन गया|
दिन बीतते गये, सन्यासी गुरु अपनी तपस्या पूरी कर के वापस आये,तो देखा की आश्रम का पता नहीं था ,आलिशान महल था वहाँ पर, गुरूजी परेशान हो गए उन्होंने गावं वालों से पूछा,तो गावं वालों ने ज़मींदार शिष्य को बुलाया, शोश्य गुरूजी को देखते ही उनके चरणों पर गिर पड़ा, और पूरी कहानी बताई,गुरूजी ने हंस कर कहा बेटा यह मायाजाल है इसमें जितना फंसोगे उतना फंसते जाओगे यदि निकलना चाहो तो सर्वप्रथम तुम्हें यह मायाजाल त्यागना पड़ेगा | शिष्य को समझ में आ गया एवम वो अपना सब जागीर सबको दान में दे दिया एवम स्वयं गुरु के साथ लोककल्याण के लिए चल दिया|"
अतः ये कहना ही उचित होगा कि यदि संतोष होगा तो हमें कोई परेशानी नहीं होगी|      


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