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शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

होली के दिन ......





होली का त्योहार आते ही बचपन के दिन आखों के सामने घूम जाता  है अब ना तो वो समय रहा ना ही माता पिता रहे ना ही वो घर रहा जहां बचपन बीता, आज होली में उत्साह भी नहीं दिखता जो हमारे बचपन मन होता था शायद इसका कारण है अब हम ज्यादा विकसित हो गएँ है या फिर यूँ  कहिये कि अब हम आलसी हो गए है जो त्योहार को मनाने में हिचकिचाते है| अब वो खुशबु घर घर से आनी कम हो गयी हैं अब वो चुहल रंगों  को लेकर एक दूसरे पर डालना, हफ्ते भर पहले से तैयारियां शुरू हो जाना, ये चीज़े अब कहाँ रही?
मुझे आज भी याद  है जब हम सभी बैठकर होली की  तैयारियां करते थे कि सुबह कितने बजेसे होली खेलेगे और होली के दिन सुबह से हम सब मिलकर एक दूसरे को रंग लगाना शुरू कर देते थे,दोपहर दो बजे तक हम लोग रंगों में सराबोर रहते थे|शायद मैं उत्तर भारत के बाहर हूँ इसलिए मुझे लगता है कि त्योहार कि कमी हो गयी है|क्योकि होली का असली मज़ा हमारे इलाहबाद में ही है जब भईया तीन दिन कि होली खेली जाती है |और रंगों को छुड़ाने में पूरा एक हफ्ता लगता है, भाई तभी तो पता चलता है की हमने भी होली खेली है अगर रंग लगाओ और तुरंत छूट गया तब तो पाता ही नहीं चलेगा की हमने भी होई खेली है, फजीहत होती है नयी बहु और दामाद की जिन्हें हमारी होली का पता नहीं होता और बिचारे फंस जाते है हमारे रंगों के जाल में |हम लोग नए लोगों का स्वागत करना खूब जानते है इसीलिए ढूंड ढूंड कर पक्के रंगों का इंतजाम रखते है अरे भाई ससुराल की पहली होली तो ऐसी होनी चाहिए जिसे हमेशा अच्छी यादों में रक्खे|
मेरा ससुराल तो मेरे पीहर जैसे है जब भी मै वहाँ होती हूँ  बहुत ही मस्ती करती हूँ वही जब मुझे घर से हट कर होली में रहना पड़ता है तो केवल यादे ही साथ रहती है वो मस्ती, वो अपनापन जरुर अखरता है|यद्यपि जहां भी रहती हूँ कोशिश यही रहती है की सभी को अपने रंगों में मैं रंग लूँ लेकिन फिर भी मुझे वहाँ की सस्कृति में रंगना पड़ता है ...........होली की यादे तो इतनी है की एक पन्ना यदि खुला तो वो कड़ी एक में एक जुडती  जाएगी होली का त्योहार  चला भी जायेगा लेकिन यादे ख़त्म ना होगी|
होली की ढेरों शुभकामनाये!!!!!!!!!!
फाल्गुन मास आया,साथ अपने रंगों का सौगात लाया,
पूरा मास फाग गया अपनों ने,
सबने मिलकर कान्हा को नहलाया ,
वृन्दावन में,
बरसाने की होली ने प्रसिद्धी पाया,
आओ हम सब मिलकर,
एक दूसरे को रंगों से नहलाये ,
सबको गुझिया, और मिठाई खिलाये,
दिल से बैर निकालकर 
सच्चे मन से सबको गले लगाये,
यही है असली त्योहार ,
जब सबके मन में जगे विश्वास..... 

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

अब पत्र लिखने का जमाना तो गया ...........

आज का युग वैज्ञानिक युग है जहाँ हम कागज कलम पर लिखना नहीं चाहते|बच्चों को जब भाषा के तहत पत्र लिखना पड़ता है तो  उनके पसीने टपकते है,फिर रटा कर लिखना पड़ता है|अभी एक दिन मुझे अपने माता पिता की बहुत याद आया रही थी शायद  उनके रहते इतनी याद ना आई होगी जितना उनके ना रहने पर याद सताती है तो मैने अपने पुराने कागज  निकाले  जहाँ मेरे शादी के बाद मेरे पिता द्वारा भेजे कुछ पत्र मुझे मिल गए साथ ही मेरी माँ के भी कुछ पत्र मिले मैं उन पत्रों को अपने कलेजे से लगा कर यही सोच रही थी कि ये तो दो चार पत्र मुझे मिल गए इसे मै हमेशा अपने से चिपका कर रखूगीं किन्तु आज इस बदलते युग में अब तोसब फोन पर बात करते  है,वेब कैम पर बात  होती है, लोग पत्र भी लिखते है तो इ मेल के जरिये|यदि किसी कि लिखावट रखना हो तो क्या हमें मिल पायेगा?
       अभी हम जब संग्राहलय में जाते है तो गाँधी, नेहरु के लिखे पत्र किताबें मिलती है किन्तु आगे संग्राहलयों में सबके कम्पुटर ही देखने को मिलेगे जिन्हें संग्राहलयों  सम्भाल कर रखा जायेगा....आज हम लिखना भूल रहें हैं, पोस्टकार्ड, अंतर्देशी ,बच्चों को पता  ही नहीं होता कि ये किस चिड़िया का नाम है|पोस्टमैन का अब कौन इंतजार करता है?डाकिया डाक लाया कि जगह अब कहा जायेगा देखो मेल सन्देश लाया.या फिर देखो फोन आया .......फोन से मुझे याद आया मै मेरी माँ से रात को बात किया एवम सुबह खबर आई कि वो इस दुनिया में नहीं रही, इस बात के दस वर्ष हो गए मैं उस दिन का सोचती हूँ जब मैने आखिरी बार बात किया था कि मैने माँ से क्या क्या कहा था किन्तु एक दो वाक्य के आगे याद नहीं आता क्योकि मैने ये नहीं सोचा था कि मैं आखिरी बार बात कर रही हूँ वहीँ जो पुराने पत्र रखें हैं वो आज भी बीती बातों कि याद ताज़ा कराते है| 
पत्र लिखना भी एक कला होती है जो आज के बच्चे भूलते जा रहे है|क्योकि आज का युग पूरी तरह से फोन पर अटक गया है |लिखने में कौन समय गवाए चलो फोन पर बात कर लेते है | इसलिए अपनी बात पन्नो पर कोई भी नहीं उतरना चाहता |किन्तु मुझे ऐसा लगता है कि स्कूल कालेजों में एक बार फिर पत्र लिखने का अभियान चलाना चाहिए,जिससे बच्चों को लिखने कि जागरूकता आये खासतौर  से  अंग्रेजी माध्यम से पढने वाले बच्चों को ये मालूम हो कि डाक ,डाकिया और डाकखाना क्या होता है|अपनी मन कि बात खत के जरिये कैसे उतरा  जाता है|ख़ैर...ये तो मेरे मन कि बात थी कि पत्र लिखना कितना जरूरी है,यादे इससे ताज़ा रहती है लेकिन सबका सोचना अलग होता है किन्तु फिर भी मैं यही कहूँगी  कि पत्र के अपने बहुत महत्त्व होते है..... हम मेल और एस ऍम एस में किसी के हाथ कि लिखावट को नहीं पा सकेगे|

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

1411 बाघ बचे हैं


1411 बाघ बचे हैं आजकल चारों  तरफ विस्तृत रूप से फैला है|अब मुझे समझ नहीं आता कि अब मै क्या करूँ .....जा कर जंगल में डेरा डालूं ??????आप ही सोचो ये तो एक दिन में हुआ नहीं तो अचानक बाघों कि चिंता सरकार  को क्यों हो गयी ...मेरा सोचना तो ये है कि इतने आतंकवाद,इतनी पार्टियों के बीच की खींचतान,नेताओं का बाघपन ही कारण है जो की असली बाघों पर गाज बन कर गिरी  और इश्वर की मर्ज़ी से अब केवल 1411 बाघ बचें  हैं |
हाय बिचारे बाघ,लेकिन इनके दिन भी लौट आये है चाहे सरकार इंसानों को ना पूछे लेकिन सरकार की गाज सरकारी अफसरों पर  जरुर पड़ी है चाहे वो बिचारे अपने बच्चों का कम सोचें लेकिन बाघों के लिए पूरा ध्यान रखना ही उनका फ़र्ज़ हो गया है क्योकि अब तो ये बाघ भी सरकारी मेहमान हो गए है| कोई जमाना था जब राजा की शान होती थी शेर बाघ के शिकार का ,अब जमाना बदला समय बदला और ये जानवर बन गए सरकारी दामाद |एकदम बारात के दुल्हे के मुताबिक इनकी देख रेख करना सबका कर्तव्य बन गया है|
अब इनको बचाने का खर्चा सोचो,प्रत्येक टीवी  चैनल पर बाघ बचाओ कार्यक्रम  चल रहा है इसके लिए क्रिकेटर या फ़िल्मी स्टार  विज्ञापन के लिए लेते है आगे हम सब समझ सकते है ............अब हर समय एक और डर रहता है कि १४११ से १४१२ तो  हो जाये लेकिन ......चलो आखिरी में मै यही भगवान से प्रार्थना करुँगी कि हे महामहिम ईश्वर बाघों पर नजर मत लगाना उनकी दिन दुनी रात चौगुनी प्रगति करना....बाघों का परिवार बढ़ेगा तो हमें भी सुख शांति मिलेगी.............
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रविवार, 21 फ़रवरी 2010

हाय ये बोर्ड परीक्षा से बदलता मौसम..

उत्तर भारत में ठण्ड की मार अभी खत्म होनी शुरू  हुयी है,मौसम बदलने लगा कुछ लोगों के यहाँ मौसम ज्यादा गर्म हो चुका है क्योकि उनके यहाँ बोर्ड परीक्षा है.....माता पिता को ज्यादा पसीने छूट रहें हैं किसी को दसवीं की परीक्षा की चिंता है तो  कहीं ज्यादा पसीने बह रहे हैं क्योकि बारहवीं  की बोर्ड परीक्षा का सामना करना है|कपिल सिब्बल तो बहुत कोशिश कर रहें हैं, किन्तु ये आदत ऐसी हो गयी है की बिना टेंशन लिए नीद नहीं आती|आजकल नम्बर की मारामारी ऐसी हो गयी है कि बच्चे जितना नम्बर लाते है हमें उससे ज्यादा कि उम्मीद रहती है|ख़ैर बच्चे तो बच्चे ही है..........
अब बात आती है हमें मौसम के हिसाब से कितना बदलना चाहिए?आजकल टेलिविज़न पर समाचारपत्रों में प्रत्येक जगह ये बताया जाता है कि बच्चों पर प्रेशर मत डालो |हम जैसे माता पिता बहुत डर जाते है कि सच में बच्चों के ऊपर किसी भी प्रकार का दबाव नहीं डालना चाहिए|अब मेरा बेटा जो कि दसवीं में है वो तो समझदार है जिसे स्वयं ही चिंता रहती है किन्तु मैने ऐसे भी बच्चों को देखा है जो कि इन आर्टिकल को खूब भुना रहे है अब दुविधा ये होती है कि बच्चों को पढने के लिए कितनी सीमा तक कहना उचित होगा क्योकि बच्चों के आजकल बढ़ते कदम माँ पिता को धर्म संकट में डालते है| यदि ज्यादा कहते हैं तो सबसे सुननी पडती है कि बच्चों पर अनावश्यक दबाव डाल रहे हो समाचारपत्र पढ़ा  करो...... 
लेकिन कभी कभी सोचना पड़ता है कि यदि हम इन्हें नहीं बतायेगे तो इनका जीवन कैसे बनेगा|मेरा मानना एक है कि बच्चों को शुरू से जिम्मेदारी देनी चाहिए जिससे आखिरी वक्त पर किसी भी प्रकार का दबाव ना देना पड़े केवल कोचिंग के भरोसे नहीं रहना चाहिए|समय ऐसा निर्धारित होना चाहिए कि उसमे पढाई, खेल, सोना(पर्याप्त निद्रा भी अति आवश्यक है ) सभी  कुछ बराबर आ जाये|बच्चों को नंबर के लिए दबाव मत दो किन्तु उनका समय भी ना बर्बाद हो ऐसा ध्यान रखना चाहिए|वारदातें वहाँ ज्यादा होती है जहाँ घर का माहौल थोडा सकुचित होता है|मानसिकता सकुचित नहीं होनी चाहिए |मेरा तो ये मानना है कि कोई भी कार्य करो किन्तु वो प्रोफेशनल होना चाहिए,अब जावेद हबीब काटने को तो बाल की कटाई करता है देशी भाषा में, किन्तु प्रोफेशनल होने की वजह से हेयर ड्रेसर बोलते है|कहने का तात्पर्य यही है की पढाई बहुत जरूरी है उसे कभी भी नकारना नहीं चाहिए बच्चों को हमेशा बताते रहना चाहिए|
आखिरी में यही कहना चाहुगी की मौसम को ही बदलने दो जबरदस्ती पढाई के लिए घर का मौसम ना बदलो खुद जियो  और औरों को भी जीने दो.....बच्चे अपने हैं उन्हें मार्ग दर्शन कराना हमारा कर्तव्य है इसमें कुछ बुरा नहीं है ये बात बच्चों को भी समझना चहिये|समय रहते ही चेतना चाहिए......

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

टीवी ड्रामा ...राहुल दुल्हनिया ले जायेगा.........

इन दिनों पैसा बनाने की होड़ में सभी टीवी चॅनल वाले लगे है फिर शो चाहे जैसा भी हो?इसके  बारे मैने पहले भी जिक्र किया था किन्तु मुझे ये नहीं मालूम था कि ये इतना घटिया शो होगा|सबसे पहले दूल्हा जिसके स्वयं के चरित्र का अता पता नहीं है| मुझे जो बात सबसे ज्यादा खटकती है इस शो में  वो ये कि  फिर से नारी को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है जहाँ राहुल महाजन जैसे लोग तय करेगें कि लड़की उनके काबिल है कि नहीं?अब तो यही सोचने का दिल करता है कि सूप तो सूप अब चलनी भी बोलने लगी जिसके खुद में बहत्तर छेद  हैं|
एक तरफ तो हम नारी के सम्मान कि बात करते है दुसरी तरफ नुमाईश लगा कर पन्द्रह लडकियों को बैठा कर नारी का अपमान कर रहें हैं |छोटी छोटी बात पर हमारे  समाज  सुधारक नेतागण बगावत पर उतर आते है ये सिनेमा नहीं दिखाने देगे या फिर इस नेता को नहीं आने देगे या फिर  खेल सम्बन्धी बखेड़ा........किन्तु क्या ऐसे प्रोग्राम उन्हें दिखाई नहीं पड़ते या फिर उन्हें ऐसे कार्यक्रम रास. आते है|नारी कि शोभा आगे बढने में है नाकि पीछे जाने में |नारी मर्यादा कि मूरत है|हमारे देश कि महिलाओं का यदि सोचा जाये जिनको हमारे यहाँ सम्मान से देखा जाता है तो दिल करता है कि काश हम भी ऐसे ही होते चाहे वो लता मगेश्कर हो, या फिर इंदिरा गाँधी|या फिर  मदर टेरेसा, या फिर किरन बेदी कुछ महिलाये विदेशो में भी झंडा लहराया है जैसे इंदिरा नूयी ,सुनीता विलियम्स इत्यादि|इन पर देश को नाज़ है| किन्तु ये  छिछोरापन जिसे देखने में भी शर्म आती है|उनका क्या करें?


क्या टीवी के ऐसे कार्यक्रम का अकाल पड़ गया है जो इस प्रकार का शो दिखाया जाता है|जिसमें लडकिया क्या साबित करना चाहती है कि मैं राहुल के काबिल नहीं हूँ या फिर लालच है कि इस शो से आगे कैरियर बनेगा चलो कैरियर कि बात तो समझ आती है किन्तु ऐसे फटे  हाल  प्रोग्राम से....इठलाती  मंडराती ये लडकिया, क्या यही कैरियर है?????????ख़ैर...ये तो हमारे समझ के परे है....शायद हम ठहरे बहनजी टाईप जिसे ये रासलीला समझ नहीं आती या फिर यूँ कहिये कि ये बातें हजम नहीं होती |मुझे तो जिन्दगी बिंदासी कि अच्छी लगती है ना कि गुलामी कि जहाँ हमारी परीक्षा ले ले कर हमें हर तराजू पर तौला जाये................ 

सास बहु हर घर की कहानी, नारी ही नारी की दुश्मन

ये पुरातन से चला आरहा है, कि सास और बहु का किस्सा, करीब करीब हर घर का रोना होता है|सास बहु कि बुराई करती है तो बहु सास की| समझ नहीं आता कि गलत कौन है?बहु अपना राग अलापती है अपने पति के सामने तो सास अपने बेटे से बहु की शिकायत पहुंचती है\ऐसे में फंसता है बेचारा बेटा ,माँ की ना सुने तो बुरा पत्नी की ज्यादा सुने तो मुसीबत|मुझे इस सास बहु के एपिसोड का एक चीज़ समझ से परे होती है कि ये नखरे एवम गलत सही का फैसला सास बहु बैठ कर स्वयं क्यों नहीं कर लेती?आज का युग तो पढ़े लिखे वर्ग का है फिर भी सास बहु कि मुसीबत क्यों नहीं कम  हो रही है?
इसका कारण है कि नारी ही नारी कि दुश्मन होती है|जिसमें सब घर का अलग अलग तरीकें है कहीं सास समझदार होती है तो बहु नहीं होती और कहीं बहु समझदार होती है तो सास समझदार नहीं होती|और बंटाधार तब होता है जब दोनों में नासमझी होती है|हर लड़की शादी के ढेरों सपने बुन कर ससुराल जाती है किन्तु जब उन सपनो को रिश्तों के सिमित दायरे में बांध कर उन सपनों को रौंद दिया जाता है तो उस लड़की का शादी पर से विश्वास हट जाता है|उसका दिल दुखता है आत्मा से हाय निकलती है|उसके आत्मसम्मान पर ठेस लगती है उस समय ससुराल के प्रति उसकी नफरत पनपती है जो कभी भी नहीं खत्म होती |ये मेरी आखों देखी बात है,मैं किस्मत कि धनी हूँ मुझे इसका व्यक्तिगत अनुभव नहीं है किन्तु मैने बहु पर होने वाले अत्याचार को बहुत करीब से देखा था तब मैं छोटी थी मेरे बालमन पर इसका गहरा असर पड़ा था लगता था कि शायद शादी बहुत खराब चीज़ है |कोई भी लड़की जब दूसरे के घर जाती है वो उस पौधे के समान होती है जो एक जगह से निकाल कर दूसरे जगह लगा दिया जाता है उस पौधे को भी मिटटी पकड़ने में थोडा वक्त लगता है एक बार वो मिट्टी पकड़ लेता है तो बहुत जल्दी आगे बढ़ता है किन्तु उस पौधे को यदि कोई हिलाता है तो वो पनप  नहीं पाता ,ठीक  उसी प्रकार यदि बहु को भी प्यार सम्मान से रखा जाताहै तो वो उस घर में रंग जाती है अन्यथा उसे अपना पीहर ही याद आता है जहाँ वो अपना मान सम्मान छोड़ कर आती है|


अब यदि हम दूसरा पहलू देखे जहाँ सास अच्छी होती है जो कि आजकल बड़े शहरों में अक्सर हो रहा है कि सास बेटी और बहु में फर्क नहीं समझ रही है वहाँ यदि सास कि इक्षाओं का दमन होता है तो वो भी खराब है वहाँ मैने अक्सर देखा है कि माँ को केवल पहले जैसे बेटे से प्यार के दो बोल चाहिए किन्तु विवाह के पश्चात कुछ बहुएं ऐसी भी होती है जिन्हें पति का घर  परिवार से लगाव पसंद नहीं आता |मुझे एक बात समझ नहीं आती ऐसा क्यों होता हैआखिर नारी अपने संस्कार कहाँ भूल गयी है उसका प्यार ,बडप्पन कहाँ खो गया है?
ये सास बहु का किस्सा कब तक चलेगा?मै यहाँ केवल कुछ लोगों कही नहीं सोच रही हूँ क्योकि मैं भी उन कम लोगों में हूँ जिसे इसका अनुभव नहीं है|किन्तु यदि हम उन पीड़ित लोगों का सोचे तो उनका जीवन नर्क बन जाता है सुख शांति चली जाती है|ये तनाव ही तरह तरह की बिमारियों को जन्म देता है|मेरा विचार तो ये कहता है या फिर यूँ भी कह सकते है  कि मेरा  अनुभव ये कहता है कि बड़ों को सम्मान दो छोटों को स्नेह अपने फर्ज़ से कभी भी ना हटो,बहु को चाहिए कि शादी के बाद ससुराल उसका घर है उसे पुरे अधिकार से रहना चाहिए साथ अपने कर्तव्य को निर्वाह करना चाहिए|सास को भी अपना समय याद करना चाहिए जब वो बहु बन कर आई थी अपने अरमानों के साथ   ठीक उसी  प्रकार बहु भी होती है यदि दोनों समझ लें एक दूसरे को और सास बहु ना होकर एक सहेली कि तरह व्यवहार करे तो शायद समस्या का समाधान हो जाये.......लेकिन दुविधा तो केवल एक है कि नारी नारी की प्रतियोगी होती है, एक दूसरे की तारीफ बर्दाश्त नहीं है तो कहाँ से समस्या का समाधान होगा?

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

आखिर हमारा देश पिछड़े देशों में क्यों है?

ये गौर करने लायक बात है कि हमारा देश सारे  देशों के मुकाबले पिछड़ा क्यों है? इसका एक कारण तो तय है कि हम लोग काम  में कम दूसरों कि  टांग खीचने में वक्त ज्यादा बिताते है|आज जैसे  वेलेंटाइन दिवस है सारे चैनल पर  इसकी ही चर्चा है - कहते है कि हम संस्कृति को बचा रहे हैं| क्या सही मायने में संस्कृति बच पा रही है?नहीं और अराजकता बढती है? ये तो छोटी सी बात थी समाज की, किन्तु  यदि हम सही अर्थ में देखें तो घर, बाहर ,कार्यालय हर जगह लोग  दूसरों के   पीछे ज्यादा वक्त बर्बाद करते है,|
हमारे यहाँ की राजनैतिक पार्टियाँ एक दूसरे की टांग खीचने में लगी रहती हैं,यदि कोई अच्छा कम करना चाहे तो उसे करने नहीं मिलता|सबको अपनी तिजोरी भरनी होती है|कोई सामाजिक गठन यदि कार्य करना भी चाहे तो अगली  पार्टी आकर उसे  कार्य करने को रोक देती है|इस हाय हाय में कोई आगे आना नहीं चाहता |ठीक इसी  प्रकार कार्यालय में भी एक दूसरे के पीछे पड़े रहते है  अधिकारी  मख्न्बाज़ी में विश्वास रखते है साथ ही रिश्वत लेने में  भी,अब बात ये आती है कि जब हम केवल अपनी जेब भरेगे और दूसरे कि बुराई  ही सोचेगे तो अपनी जिम्मेदारी से मुकर कर आज का काम कल पर टालते रहेगे तो आगे हम कैसे बढ़ेगे ?

हम किसी भी समूह  , समुदाय , समाज में खड़े हो जाएँ हमें वहाँ भविष्य में आगे बढ़ने कि बात बहुत कम सुनने को मिलेगी  किसी ना किसी को नीचा दिखा कर स्वयं को सर्वोपरी बताना आम बात हो गयी है|यही विदेशी कम्पनियों  में काम की प्रधानता रहती है |वहीँ सरकारी कार्यालय अपनी आलस्यपन के कारण पूरी तरह बदनाम हो चुके है|यदि ये सरकारी विभाग अपनी  मुस्तैदी से कार्य करे तो देश को तरक्की करने में कितनी आसानी होगी|कष्ट वहाँ आता है जब कोई सरकारी अधिकारी अपने कार्य में सक्षम होता है किन्तु उसे अपने तरीके से कार्य नहीं करने दिया जाता |

अब मै यही सोचती हूँ कि यदि हम सभी भविष्य का सोचें दूसरों के काम में दखलंदाज़ी ना करे तो हम तरक्की पायेगे और अपना देश आगे आएगा|इसमें एक कारण और जुड़ता है जिनका मन मस्तिष्क इसमें नहीं होता वो जानते है कि यहाँ शायद उनका काम उनके मन मुताबिक ना हो पायेगा वो अपने जीवन को सवारने विदेश  चले जाते है, एवम भला विदेश का ही होता है  उधारण सुनीता विलियम्स और कल्पना चावला |यदि हमारी सोच एवम समझ बुरायिओं  से हट कर वास्तविक जीवन पर आजाये तो हम भी ना जाने कितने हीरों को तराश कर कोहिनूर बना सकते है..........

वेलेंटाइन दिवस केवल 14 फ़रवरी को ही क्यों ?

  १४ फ़रवरी को   वेलेंटाइन दिवस क्यों मनाया जाता है? क्योंकि सन  1400 से 14 फरवरी को यह इग्लैंड में  मनाया  जाता  रहा है|धीरे धीरे इसने  सब जगह अलग अलग रूप  ले लिया|अब मेरे दिल में केवल एक प्रश्न उठता है कि क्या हमें प्रेम का इज़हार केवल एक दिन १४ फ़रवरी को ही करना चाहिए या हमेशा बरक़रार  रखना चाहिए|आज हमारे समाज में वैवाहिक जीवन में इतनी कडुवाहट भर चुकी है कि वो चाहे प्रेम विवाह हो या फिर माता पिता का सुझाया विवाह हो - कुछ दिन बाद सब एक बराबर हो जाता है |
हम आजकल प्रत्येक चीज़ कि नकल करते हैं सो हमने इसका भी नकल कर लिया|इस वेलेंटाइन दिवस से काफी लोगों का फायदा भी होता है, जैसे कार्ड बनाने वालो का, गुलाब के फूल बेचने वालों का, नेताओं का ,मिडिया का, और सबसे बड़ा फायदा होता है उन लोगों का जो हमेशा झगडे में विश्वास रखते है, और इस दिन एक गुलाब का फूल या फिर एक गुलदस्ते को दे कर सारा साल फिर झगड़े कि ठान लेते है| क्या  यही सच्चा प्यार है? 
यदि मुझे इसे परिभाषित करने को कहा जाये तो मैं यही कहूंगी कि वर्ष के 365 दिन ही वेलेंटाइन दिवस होने चाहिए प्रत्येक दिन  ही गुलाब के फूल के भांति खिले होने चाहिए|दोनों को आपस में विश्वास एवम समझदारी होनी चाहिए| आज के युग में मनाये जाने वाले इस  वेलेंटाइन दिवस को हमें ऐसा मनाना चाहिए जिससे खुशियाँ मिले केवल हम एक ही दिन पर क्यों निर्भर रहते है.क्या बाकि दिनप्रेम के इज़हार का दिवस नहीं होता|और दूसरे नजरिये से अगर हम देखें तो ठीक भी है कि चलो कम से कम एक दिन तो प्यार का इज़हार कर लो बाकि के 364 दिन का तो पता नहीं?
मैं आखिरी में एक ही चीज़ दोहराना चाहूंगी कि हमे हमेशा वेलेंटाइन दिवस मनाना चाहिए नाकि केवल 14 फ़रवरी को केवल |किन्तु मेरे अकेले के सोचने से क्या होगा??????

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

बच्चे के जन्म के साथ माँ का एक नया जन्म होता है

ये सही है की एक बच्चे के जन्म के बाद माँ को नया जन्म मिलता है, माँ बढ़ते बच्चे को नौ माह तक अपनी कोख में संभाले रहती है  फिर होता है बच्चे का जन्म,तमाम तकलीफों के पश्चात एक बच्चे का जन्म होता  है और माँ को मिलती है नई जिन्दगी|मैं ये नहीं जानती की सब माँ ऐसा ही सोचती है या फिर मैं कुछ ज्यादा सोचती हूँ कि बच्चों को पालने में ज्यादा जिम्मेदारियों को उठाना पड़ता है मेरे गणित के हिसाब से बच्चों को अच्छी शिक्षा ,अच्छे संस्कार,उनके परिपक्व हो जाने तक उनकी देख रेख, उनके बदलते उम्र के हिसाब से स्वयं को भी ढालना,इत्यादि ऐसी गतिविधियाँ होती है जिनसे एक माँ पूरी तरह परिपक्व हो जाती है|
ऐसा सब माँ के साथ होता है| किन्तु कुछ माँ ऐसी भी होती  है जिन्हें कहीं इससे ज्यादा कष्ट उठा कर बच्चों को पालना पड़ता है|जब किसी कारणवश पति का साथ छुट जाता है कभी ये इश्वर का दिया कष्ट होता है और कभी ये उनकी मजबूरी होती है|जो भी है वो बच्चों को पालती है, बच्चे बड़े हो जाते हैं उनकी शादी होती है लड़की है तो अपने ससुराल जाती है और लड़का हुआ तो लड़की घर आती है और उसके पश्चात् यदि लड़की समझदार है तो उस माँ के जीवन से सीख लेगी अन्यथा रोज़ का महाभारत कोई भी नहीं रोक सकता ये आये दिन कि कहानी हो गयी है| यकीन मानिये जब ऐसे वाकये सामने आते हैं तो दिल दहल जाता है कि लोग केवल पति  तक ही रिश्ता क्यों रखना चाहते  है? 
विवाह एक ऐसा पवित्र रिश्ता होता है जो कि पति पत्नी के साथ ही और रिश्तों का भी जन्म देता है| हर रिश्तों कि अपनी अहमियत होती हैऔर जब हम माँ बन जाते है तब तो माँ के दर्द एवम ममता कि लाज रखनी चाहिए | केवल आज़ादी कायम रखने के लिए हम रिश्तों को तोड़ते है ये कहाँ तक उचित है?यदि कुछ गलत लगता है उसे बात से सुलझाया जा सकता है, लेकिन समस्या एक है कि आजकल  हम कैरियर बनाने के चक्कर में रिश्तों के अहमियत को भूल गए है, मैने तो यहाँ तक देखा है कि फोन से भी बात करना जरूरी नहीं समझा जाता|मै जब ऐसा माहौल देखती हूँ तो मेरा दम घुटता है,लगता है कि कैरियर बनाओ किन्तु रिश्तों का गला मत घोटो|
माँ ने कष्ट सह कर जन्म दिया है एवम पाला है उसका सम्मान करो यदि कुछ गलत लगता है तो हक़ से बोलो लेकिन रिश्तों  को मत टूटने दो...........  

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

जैसी फसल हम बोते है ठीक वैसा ही काटते हैं.....

जैसी फसल हम बोते हैं ठीक वैसा ही काटते हैं अर्थात जैसा हम कर्म करते है ठीक वैसा ही फल हमें मिलता है| ये मेरी अजमाई हुयी बात है , ऐसा ही मै अपनी सोच नहीं लिख रही हूँ बल्कि मैने अपनी आँख देखी घटनाओं से अनुभव किया कि यदि कोई  अपने बड़ों कि सेवा करता है वो भी निःस्वार्थभाव से अपनी जिम्मेदारी के साथ, तो इश्वर भी उसका साथ पल पल देते है|
जब हम स्वयं बड़ों कि अवहेलना करेगे तो बच्चों पर वही असर पड़ेगा और वो वही सीखेगें|ये कहना सरासर गलत होता है कि हम तो अपने माता पिता का खूब करते थे किन्तु हमारे बच्चे तो ऐसा नहीं करते|क्योकि ये मैने अपने घर में ही आजमाया है कि मेरी दोनों माँ ( एक जन्मदाता दूसरी कर्म से अर्थात मेरे पति को जन्म देने वाली माँ,) दोनों ने भरपूर निःस्वार्थभाव से अपने सास ससुर की सेवा की|इसमें मेरे माता पिता नहीं रहे , ये कष्टकारी है मेरे लिए किन्तु मै अपने परिवार के सहयोग से  अपना पूरा फ़र्ज़ निर्वाह किया पिता की सेवा का मौका मिला वो किया किन्तु माँ ने इतने फ़र्ज़ किये थे कि इश्वर ने उनकी सेवा करने का वक्त ही नहीं दिया और उनका हार्टफेल हो गया|आज वो हमारे बीच नहीं हैं फिर भी मै यही कहती हूँ कि  मेरे   माँ और पिता है अलबत्ता उन्होंने जन्म मेरे पति  का दिया है किन्तु लाड स्नेह का  पूरा अधिकार मेरा भी रहता है इश्वर से यही दुआ मागुंगी कि उनकी सेहत हमेशा अच्छी बनी रहे|

कहने का एक ही मकसद है कि जैसे माँ अपने बच्चे को सीने से लगाती  है एवम पूरे ध्यान से पालती है यदि बच्चे उसका 50% भी कर पाए तो वो अपनी जिंदगी बना लेगें|मुझे एक ही चीज़ समझ में नहीं आती यदि कोई महिला ये कहती है कि ये सारी जिम्मेदारी हमारी ही क्यों है?हम किटी पार्टी कर सकते है हम मंदिर जा कर कीर्तन कर सकते है, शाम को कुत्ता घुमा सकते है किन्तु घर में बैठे अपने बड़ों को चाय नहीं पूछ सकते|हमें उनकी सेवा करना भारी लगता है किन्तु समाज सेविका कहलाने  में गर्व महसूस होता है|हम अपने ऊपर भरपूर खर्च करते है किन्तु परिवार में देने के समय हाथ क्यों रुकता है?
इसमें मैं एक चीज़ और लिखना चाहुगी जो महिला अपने पति पर गुमान करती है उसे सिर्फ एक बार सोचना चाहिए कि वो पति आया कहाँ से ?उसे जन्म किसने दिया?आप तो तैयार पेड़ पर आई हो , फल खाने के लिए , लेकिन उस माली की भी  थोडा परवाह कर लो जिसने इतना बड़ा पेड़ तैयार किया|क्योकि आप अच्छाई बुराई का फसल तैयार कर रहे हो वही आपका बच्चा देख रहा है अब वैसे भी दूरियां ज्यादा बढ़ रही है वो शायद याद करने में भी वक्त लगाये|और दूसरा अब मुझे एक चीज़ और भी लगती है कि आज के युग में यदि हमें वृद्धों कि सेवा का अवसर मिले तो इसे नहीं गवाना चाहिए क्योकि आजकल जिंदगी का क्या ठिकाना????
    

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

एक आस्था फूटपाथ पर गुज़र बसर करने वालों की

 आज मेरी कार मुंबई की सड़कों पर दौड़ रही थी,तभी मेरी निगाह अचानक फुटपाथ पर पड़ी, जहाँ काफी झुग्गी झोपड़ियाँ थी,अभी मै देख  ही रही थी कि तभी मुझे उन झोपड़ियों के बीच एक शिवालय दिखा| मैने गाड़ी ड्राईवर से रोकने के लिए कहा,ड्राईवर ने गाड़ी रोकी मैने उस मंदिर में दर्शन किया मदिर बहुत छोटा सा था किन्तु साफ था आस्था का दीपक पूरी रौशनी बिखेरे था वहाँ कोई महिला पूजा कर रही थी उसने गुड का प्रसाद  दिया|मै ये सोचने को मजबूर थी कि इनके पास धन नहीं है किन्तु ये अपनी झोपडी के बीच भी एक छोटा सा मंदिर बनाया है|मुझसे रहा नहीं गया मै उन झोपडी में रहने वालों से पूछ बैठी कि आपने ये मंदिर बनाया है या फिर मंदिर पहले से था ? उसमें से एक मजदूर ने बताया कि हमने ये जगह इसलिए चुनी क्योकि ये मंदिर था और हम लोग ये विश्वास रखते हैं कि हम भरपेट भोजन कर रहें है और तन ढंका है वो इनकी ही देन है|यदि हम इनके पास रहेगे तो हमें कार्य भी मिलेगा और दो वक्त कि रोटी भी|आगे जिज्ञासा मेरी बढ़ी मैने पूछा कि आप को इतनी आस्था है तो आपने कभी ये क्यों नही सोचा कि आपको ईश्वर ने और पैसे क्यों नहीं दिए?उसने जवाब दिया कि मेमसाहब यदि मेरी किस्मत इतनी अच्छी होती तो मै कहीं बड़े घर में जन्म लेता|
मैने बात आगे बढाया कि आप ऐसा क्यों सोचते है जन्म लेना ही सब कुछ नहीं होता इश्वर किआस्था एवम मेहनत आपको बहुत कुछ दे सकता है इस पर उस मजदूर के उत्तर ने हमें सोचने को मजबूर कर दिया ,उसने कहा आस्था और कर्म दो अलग  चीज़ हो कर भी एक दुसरे से जुडी है कर्म हम करते है जितना हमारे किस्मत में लिखा होता है,और आस्था पूजा हम करते है, और करना चाहिए जितना हमारे पास वक्त हो साथ ही दूसरी बात पूजा कुछ मागने के लिए ना करके आत्मा कि शांति के लिए करना चाहिए|अब हमारे पास कोई प्रश्न नहीं था मैं उस अजनबी मजदूर   से कुछ क्षण में ही बहुत कुछ सीख कर कार  में बैठ गयी|कार आगे बढ़ चली ये प्रातः काल का वक्त था ठंडी हवा के साथ ठंडी साँस मैने लिया,बस मैं एक चीज़ को सोचने को मजबूर थी कि झोपडी में रह कर आदमी इतनी बड़ी बात सोच सकता है कि पूजा - अच्छी सोच के लिए करो ना कि और पैसा पाने के लिए|काश....ऐसा सोच सभी की होती.......   

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

जिन्दा रहने पर पानी को तरसाए, मरने के बाद करे हो हल्ला से श्राद्ध

ये वाक्य पढ़ कर थोडा अजीब लगता है किन्तु वास्तव में आजकल ऐसा ही देखने एवम सुनने को मिलता है|कभीकभी बहुत आश्चर्य होता है कि आखिर लोग बदल कैसे जाते हैं| माता पिता कि तरफ से मुख कैसे मोड़ लेते है?जिम्मेदारियों से कैसे मुकर जाते है?मेरा एक अनुभव ये भी रहा है कि जिन माता पिता को पुत्री से ज्यादा पुत्र कि चाह होती है वो बाद में ज्यादा पीड़ित होते है|ये मेरा केवल अनुभव है, ये सच है ऐसा मैं नहीं कहती हूँ|लेकिन ये अनुभव कि जिदा रहने पर खाना पानी को भी लोग नहीं पूछते एवम मरने के बाद तुरंत शुरू हो जाती है मृतक के सारे सदगुण फिर  नकली आँसू उसके बाद श्राद्ध की तैयारी जैसे कोई बेटा  बेटी की शादी हो| बाद में सबके आगे अपनी बडाई करना कि श्राद्ध में तीन हजार लोगों ने खाना खाया|
ऐसा ही किसी के माँ के साथ हुआ था मुझे आज भी  याद हैकि उस लड़की को अपनी माँ कि बहुत चिंता थी वो सिर्फ मजबूर थी क्योकि भारतीय परम्परा में दोनों बँधे थे माँ बेटी के घर आने को तैयार नहीं थी वो अपने बेटे के पास ही रहना चाहती थी और बेटी को पीहर में ये कष्ट था कि वो भाभी के राज्य में माँ के लिए दिल खोल कर सेवा नहीं कर सकती थी| समय बीतता गया कष्टों को झेलती एक दिन बूढी माँ ने प्राण त्याग दिए|घर से किसी को चिंता नहीं हुयी कि बेटी को भी खबर कर दी जाये| तीन दिन बाद उसे किसी बहरी आदमी ने आकर बताया|बेटी ये सुनकर मूक बन गयी, उसने सोच लिया कि अब जब माँ नहीं है तो हम  वहाँ क्यों जायेगे, वो नहीं गयी|श्राद्ध हो जाने के बाद एक दिन उसका भतीजा आया और बताने लगा कि श्राद्ध नहीं वो तो ब्रह्मभोज लग रहा था,काफी गुणगान सुनने के बाद उस बेटी ने एक ही प्रश्न किया इतने लोगों ने खाना खाया उस पंगत में मेरी माँ कितनी बार बैठी और भोजन किया?उसके पास कोई जवाब नहीं था....... 
ऐसा वाकया बहुत मैने सुना और देखा है कुछ की मदद भी की,लेकिन ये सिलसिला कब तक चलेगा?ये दिखावा ,अपनी जिम्मेदारियों से परे हट कर|कुछ लोग पैसा भेजना ही अपनी जिम्मेदारी समझते है|वृद्धावस्था  में हाथ पैर की सेवा ज्यादा जरूरी होता है|यदि आप और आपकी  पत्नी दोनों नौकरी में हो समय नहीं दे सकते तो कम से कम ऐसी नर्स रख दो जो उनका ध्यान रख सके सुबह शाम आप भी हाल पूछ लो लेकिन कुछ तो ध्यान दो...अपनी जिम्मेदारियों से यूँ ना मुख मोड़ो.....श्राद्ध में केवल पांच ब्राह्मण खिला दो लेकिन जिन्दा रहते उन्हें घिसटने पर ना मजबूर करो...... नहीं तो बाद में वही कहावत चरित्रार्थ होगी की "बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होए"...

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

भारतीय परिधान साडी का आधुनिकीकरण

नवयुग आधुनिकीकरण का युग है|आज हम सब चीज़ों  को तोड़ मरोड़ कर आधुनिकता की चादर में लपेटे जा रहें  जा है|ठीक इसी प्रकार पुरातन से चली आ रही भारतीय परिधान साडी का भी आधुनिकीकरण कर के पुर्णतः पोस्टमार्टम   किया जा रहा है|साडी जिसमें नारी को एक सम्मान मिलता था,एक मर्यादा होती थी ,पांच मीटर की लम्बी साडी उस पर ब्लावुज़ जिसमें नारी सर से पावँ तक ढकती थी, वही साडी अब देख कर लगता है कि साडी में दोष है या फिर नारी में?
वर्तमान युग में टीवी का चलन हो गया है, जैसा उसमें कपडे पहनने का दिखाया जाता है हमारे यहाँ की महिलाएं उसे तुरंत अपनाती है|आजकल का फैशन इतना टीवी के सीरियल से जुड़ गया है कि यदि आप बाज़ार जाएँ तो दुकानदार साडी का नाम सीरियल के नाम से पूछता है कि आपको कौन सी साडी चाहिए?फिर साडी कि खरीददारी के बाद साडी पहनने कि बात आती है, तो फिर वही सीरियल आता है कि किसी x.y.z  सीरियल में किसी x.y.z ने कुछ हट कर साडी बाँधी थी  ठीक  उसी  प्रकार  साडी उन्हें भी चाहिए होती है|अब वो साडी ऐसी बाँधी गयी होती है कि शरीर का आधा से ज्यादा भाग खुला होता है तभी वो मॉडर्न  प्रतीत होते है|बाकि जो मर्यादा में साडी बांधते है उन्हें उपाधि दी जाती है "बहनजी टाईप " है|
आजकल नया रियल्टी शो शुरू हुआ है उसमें पन्द्रह लड़कियां  है शायद जिन्हें भारतीय परिधान साडी,घाघरा से बहुत लगाव है तभी तो कपड़ों का पूरी तरह चीरहरण  हो रहा है|कपड़े पहने जाते है शरीर को ढँक कर एक सुंदर एवम सुव्यवस्थित रहने के लिए|कपड़ों से नारी कि मर्यादा बढती है,कपडे चाहे सलवार कुरता हो, या पैंट कमीज़ हो या फिर साडी जैसे परिधान जब नारी सही तरीकों में रहती है तो भारतीय नारी किएक अलग शोभा बढती है|

कपड़ों का आधुनिकीकरण करो किन्तु ऐसा ना कर दो कि ना तो विदेशी रह जाये नाहि स्वदेशी में रह जाये|क्योकि  मर्यादा में रह कर किया गया प्रत्येक कार्य बहुत खुबसुरत होता है|

टीवी पर एक और नौटंकी शुरू "राहुल दुल्हनियां ले जायेगा" लेकिन कितनी बार ?

टेलिविज़न का शो आजकल बड़ा हिट जाता है और जाना भी चाहिए क्योकि नौटंकी के बादशाह लोग काम कर रहे है|अभी कुछ दिन पहले ही इमेजिन इण्डिया पर राखी सावंत का स्वयंवर दिखाया गया टी. आर. पी. बढ़ी,तो लो भईया एक और नौटंकी जनता जनार्दन के लिए ला दिया गया| इस बार लाया गया है राहुल महाजन को ,अब  जब इसका विज्ञापन दिखता है कि राहुल दुल्हनिया ले जायेगा........तो  दिल से हंसी कि एक फुहार निकलती है कि राहुल दुल्हनियां तो ले जायेगा लेकिन कितनी बार? एक बार इनका विवाह अग्नि के फेरों को लेकर वैदिक तरीके से हो चुका है, फिर इनकी लैला मजनूं कि कहानी दिखाई पड़ी बिग बॉस में, और अब एक और रियल्टी शो....इस बार तो राहुल कि दसों उँगलियाँ  घी में और सिर कढाई में है|पन्द्रह लड़कियों के बीच घिरे हुए राहुल महाजन ..
अब इन टीवी शो में कोई भी हया शर्म तो नाम मात्र भी नहीं रह गयी है हाँ ये एक अलग बात है कि कुछ लोगों के लिए शायद अच्छा  समय व्यतीत करने का साधन है |किन्तु कभी कभी सोच कर ये लगता है कि जो भी इनको देखता है वो किस चीज़ का बढ़ावा दे रहे है?  कम कपडे पहनने का या फिर वक्त कि बर्बादी का? क्योकि इन टीवी सीरियल से कोई नसीहत तो मिलनी नहीं है बदले में वक्त अलग बर्बाद होता है|अब इस राहुल महाजन के शो में  क्या नसीहत है कि हमारे युआ पीढ़ी को भी पन्द्रह बीस लड़कियां चाहिए? या फिर ये नसीहत है कि एक बार शादी  कर के आठ नौ महीने बाद तलाक़ करके फिर से रंगरेलियां मनाओ|जैसा कि बाहर राखी सावंत भी कर रही है|क्या इसका प्रभाव हमारी भोलीभाली जनता पर नहीं पड़ता|
आजकल टीवी और केबिल जिसमे कि प्रत्येक चैनल दिखाए जाते है|ये  हमारे ग्रामीण  इलाकों में भी दिखाए जाते है|वहाँ कि जनता बहुत भोलीभाली होती खासतौर पर ग्रामीण महिलाएं जो कि ना के बराबर पढीलिखी होती है वो सीरियल देखकर उसी प्रकार बनना चाहती है यहाँ एक और समस्या उठती है वो है ग्रामीण युवा पीढ़ी वो भी सपनों की दुनिया बनाने लगते हैं|ऐसे रियल्टी शो भोली भाली जनता पर गहरा  असर छोडती है| मुझे ऐसा लगता है कि कोई भी शो बनने से पहले एक बात ध्यान में होनी चाहिए कि हर शो प्रत्येक घर में चलता है और अब ये ग्रामीण इलाकों में भी पहुंच चुका है|ख़ैर......
अंत में आत्मा यही सोचने को मजबूर करती  है कि इमेजिन इण्डिया का अगला शो क्या होगा कि "राहुल महाजन एक और बार फिर से दुल्हनियां ले जायेगा????? "  

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

पश्चिमीसभ्यता को अपनाने की होड़ में आज की युवा पीढ़ी

वर्तमान समय में युवा पीढ़ी पश्चिमी सभ्यता को भारतीय संस्कृति से ऊँचा मानती है इसीलिए वहाँ का रहन सहन, खानपान,बोलने का तरीका,इत्यादि अपनाती है| युवा लड़के लड़कियां मदिरापान, धुम्रपान, को ही समाजिक जीवन बना लिया है|आखिर ये दिखावा क्यों इतनी तेज़ी से फैल रहा है?
हम ये मानते है की पश्चिमी देशों में लोग ज्यादा तेज़ दिमाग के होते है|इसका कारण है कि वो शुरू से खुले दिमाग के होतें है|वो मेहनत करते है|हमारी युवा पीढ़ी उनकी सकारात्मक सोच को नहीं अपनाती वो सिर्फ उन अवगुणों के पीछे भागती है जिसका हमारे जीवन से कोई सरोकार ही नहीं है|

आज बड़े शहरों कि बुरी हाल है जहाँ सडको पर भी धुम्रपान करते हुए लड़के लड़कियां दिख जाते  है|आज डिस्को का जमाना है वहाँ तो एकदम अंधेर मची है|ये पहले तो नहीं था|ये तो पश्चिमी देश से लाया गया भारत में नया इतिहास है| लड़कियां खुलेआम  शराब पी रहीं है,क्या यही भारतीय संस्कृति है?सिनेमा में लडकियों के कम कपड़ों का तो एकदम प्रचलन हो चुका है वही वेशभूषा बड़े शहरों में भी अपनाया जाने लगा है|क्या घर में लोगों को नहों दीखता?या फिर यूँ समझें कि ऐसा दिखाने के लिए ही पहना जाता है|

हमारी भारतीय सभ्यता में ऐसा क्या कमी है जिसे हमारी युवा पीढ़ी नहीं अपनाना चाहती ?शायद  हमारी सभ्यता में कोई भी कमी नहीं है,  कमी है तो केवल हमारी सोचमें, हम दिखावा में जीते हैं,कहीं हमें कोई कम न समझ ले, और यही मानसिकता अपने आने वाली पीढ़ी में भी हम डाल रहे है, ये हमारी सकीर्ण मानसिकता है शायद मेरे इस विचारधारा से सब सहमत न हो किन्तु यदि ध्यान से सोचा जाये तो ये यथार्थ है|

पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण करना बुरा नहीं है, बुरा है तो बुराई को अपनाना जो न तो सेहत के लिए अच्छा है न ही समाज के लिए|पश्चिमी सभ्यता से उन चीज़ों का अनुकरण करो जिससे सबका भला हो,उदाहरन के तौर पर यदि हम उनसे समय की पाबंदी सीखें तो शायद जिंदगी का सफल शुरुआत हो जाएगी|बुरी चीज़ अपनाना जितना आसन है उतना उसे छोड़ना कठिन होता है| हम भारतीय है हमें अपनी सभ्यता पर गर्व होना चाहिए, हमें खिचड़ी बन कर नहीं जीना चाहिए, हमे उस बासमती चावल की तरह बनना चाहिए जिसकी खुशबु कितने लोगों को आप तक खिंच कर लातीहै|