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मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

दिल्ली का अक्षरधाम मंदिर

दिल्ली का  अक्षरधाम मंदिर अनेक शिल्पकारों को लेकर बहुत ही कलात्मक रूप से  बनाया गया है, मंदिर बहुत ही भव्य है|इस भव्यता को चार चाँद लगता है वहाँ की  प्रदर्शनी जो की जीवंत लगती है|इस की शुरूआत प्रदर्शनी के पहले भाग से होता है, जहाँ ये समझाने की कोशिश की गयी है कि इमारत को बनाने में तो अनेकों शिल्पकारों कि जरूरत होती है किन्तु स्वयं को बनाने के लिए मात्र आत्मविश्वास कि जरूरत होती है हमें स्वयं  को बनाना है स्वयं को ही समझाना होगा कि क्या गलत है और  क्या सही?स्वामी नारायण ,नीलकंठ महराज जी के व्यक्तित्व के जरिये ये समझाने कि कोशिश कि गयी है कि दूसरों का बुरा मत सोचो ,हो सके तो सहायता करो....इसी में नौका यात्रा के द्वारा ये बताया जाता है कि भारत एक ऐसा देश है जहाँ पुरातन से कोई ना कोई खोज हुआ है|इस अक्षधाम का आखिरी मुकाम नीलकंठ महाराज जी का जीवन यात्रा है जो एक सिनेमा के द्वारा दिखाया गया है |
इसमें सीखने के लिए बहुत कुछ है यदि मनुष्य सीखना चाहे लेकिन दर्द इसी बात का है कि हम इस खुबसूरत जगह को भी बुराई में बदलना चाहते है उसे पिकनिक का स्थान बना लिया है |ख़ैर.... अक्षरधाम मंदिर बहुत ही सुंदर है अंत में यही कहना चाहूंगी कि प्रत्येक मंदिर कुछ कुछ ना कहता है हमें समझना है सीखना है एवम अपने जीवन को सवारना होगा.... 

शनिवार, 6 नवंबर 2010

आखिर खुशियाँ कहाँ है??

हम सभी खुशियों के तलाश में रहते हैं लेकिन किसी से यदि ये पूछो कि आप तो आनन्द से हो .तो उसका यही जवाब होता है कि नहीं मैं तो जीवन से बहुत परेशान हूँ............अब प्रश्न ये उठता है कि आखिर खुशियाँ कहाँ है??हम आनन्द को कहाँ ढूढें?आनंद कि तलाश में सभी रहतें हैं किन्तु ख़ुशी बहुत कम लोगों को मिलती है ऐसा क्यों होता है? इसका मुश्किल है किन्तु नामुमुकिन नहीं ...............मै किसी पत्रिका में पढ़ रही थी कि एक बार नेहरूजी से किसी ने पूछा कि आप हमेशा खुश रहते हैं आपको कभी भी तनाव नहीं होता इसका राज़ क्या है? नेहरु जी ने कहा कि मैं  बच्चों  से स्नेह करता हूँ प्रकृति से प्यार करता हूँ दूसरे कि कही बातों पर ध्यान नहीं देता  अपना काम  स्वयं करता हूँ यही हमारे प्रसन्न रहने का राज़ है|
  ये सत्य है कि हमें खुशियाँ छोटी छोटी चीज़ों में मिलती है,कीमती वस्तु में या बहुत धनि होने में ये ख़ुशी का दायरा सिमट जाता है |प्रकृति से लगाव, दूसरों में खुशिया बाटने का चाव ही हमें खुशियाँ देता है|त्यौहार पर यदि हम किसी गरीब का चूल्हा जलवा देते है तो उसकी ख़ुशी में ही हमारी खुशियाँ है|हम जब किसी के परेशानी  में उसका सहारा बनते हैं उसकी अचानक आई परेशानी जब दूर होती तो उसकी उस जीत में ही हमारी ख़ुशी है|
आनन्द तो हमारे द्वार पर रहता है किन्तु हम उसकी तलाश में पूरा जीवन व्यर्थ में गवां देते हैं हम भी कस्तूरी मृग के समान हैं जो कि कस्तूरी अपने नाभि में रख कर पुरे वन में उस सुगंध को तलाशता है|हम मानव जीवन में है जिसे ज्ञान है तो हम क्यों पशु कि तरह अपना ही बारे में क्यों सोचे |दूसरों  कि ख़ुशी में जल कर राख ना हों शायद हम यहीं से खुशियाँ जोड़ सकते हैं |
दीपावली कि शुभकामना  के साथ यही आशा है कि सब के घर माँ लक्ष्मी ढेरों खुशियाँ के साथ आएगी.............................  

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

राहुल दुलहनिया तो ले गया लेकिन अब???????

सुबह कि गरमा गरम खबर डिम्पी महाजन ने घर छोड़ा .............मार पिटाई का किस्सा .........क्या शादी जैसा पवित्र बंधन राहुल महाजन के लिए मजाक के सिवा कुछ भी नहीं ??पहले लड़कियों को बुला कर एक एक के साथ समय बिताना फिर सबको हटाते हुए एक को चुन कर शादी करना ????ये लड़कियां भी क्यों नहीं समझी कि जब श्वेता जैसी सुघड़ लड़की के साथ राहुल ने ऐसा बर्ताव किया तो उनके साथ भी वही होना है क्या श्वेता में कोई कमी थी नहीं राहुल कि नजरों में लडकी सिर्फ लड़की है महिला कि कोई प्रतिष्ठा नहीं है| हो सकता है कि पत्नी डिम्पी भी गलत हो किन्तु एक महिला होने के नाते मैं ये कहूँगी  कि प्रताड़ित करना समस्या का समाधान नहीं है....घर के अंदर किसी भी समस्या का हल निकाला जा सकता है.....हम भारतीय संस्कृति कि बड़ी बड़ी बातें करतें हैं क्या यही भारतीय संस्कृति है???
यदि पति पत्नी का विश्वास कायम नहीं कर सकते एक दूसरे को समझ नहीं सकते तो शायद ऐसे लोगों को विवाह नहीं करना चाहिए...क्योकि यदि ऐसी भद्दी तस्वीर बार बार सामने आएगी तो लोगों का विवाह जैसे पवित्र एवम प्यारे बंधन पर से विश्वास हट जायेगा .......आखिर ये सब कब बंद होगा माना कि ये बड़े लोगों कि बाते हैं तो सामने आ गयी अन्यथा कितने लोग इसी गुनाहों को सहते हुए सारी जिंदगी बीता देते है.....
आज के समय में हम लड़के लड़कियों को एक बराबर मानते है लेकिन क्या यही बराबरी है??जहाँ पहली पत्नी ने बर्दाश्त किया और वही हाल दुसरी पत्नी का भी हुआ क्या अब कोई दूसरी लड़की शादी करना चाहेगी???मेरी तो यही सोच है कि एक बार सेर को सवा सेर तो मिलना ही चाहिए......जिससे लोगों को महिला का इज्ज़त करना आजाये...... 

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

फूल वाली माई

कभी कभी जीवन में कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जो की बारबार सोचने पर मजबूर करतीं है कि क्या निर्धन के पास ज्यादा दिल बड़ा होता है जो कि धनि के पास नहीं हो सकता| 
आज मैं एल्लोरा में स्तिथ घ्रिश्नेश्वर ज्योतिर्लिंग में गयी थी |  हर बार की भांति  मैं फूल  वाली माई के पास गयी फूल एवम पर्षद इत्यादि लेने | माई आज भावुक होकर मेरा हाथ  पकड़ कर बोली  आज बहुत  दिन बाद आई बिटिया...आज इतने दिन बाद माँ के याद आई | मुझे उसमें ममता झलकती दिखाई दी|खैर मैंने फूल , फल प्रसाद इत्यादि लिया और पूजा के लिए मंदिर में चली  गयी |  जब पूजा कर के बाहर  निकली  और माई के पैसे और टोकरी  वापस कर के अपने कार की  तरफ जाने लगी तब माई ने मेरी बिटिया को बुलाया और एक प्रसाद का पैकेट दिया और बोली तुम लोग सब मिल कर खा  लेना |और ऐसे ही आते रहना....मेरी आखों से आसूं की धारा निकल पड़ी कि दिन भर दो दो रूपये कमाने वाली का दिल कितना बड़ा है कि वो बच्ची को प्रशाद का बड़ा पैकेट दे रही है वहीँ  बड़े बिजनेसमैन अपने स्वार्थ के लिए तो करोरों  खिला देगें किन्तु निःस्वार्थ भाव से किसी को एक पैसा भी ना पूछेगें | शायद यही अंतर होता है एक धनी और निर्धन के देने के भाव में,एवम नीयत में ......

बुधवार, 17 मार्च 2010

मायावती की माया


आजकल नया चर्चा का विषय उत्तर प्रदेश है|  ग्रामीण इलाका गरीबी की रेखा पर झूल रहा है वहीं रईसी इस कदर है कि करोड़ों की माला गले की हार  बन कर रह गयी है |इसे ही कहते है अधजल गगरी छलकत  जाये|मुझे कभी कभी लगता है कि मनुष्य केवल स्वयं का ही क्यों सोचता है?खासतौर पर जब वो ऐसे कुर्सी पर विराजमान हो जहां से केवल जनता की ही सेवा करनी हो |वहाँ से अपने लिए ही सोचना ?अब तो ये सोचना पडेगा की आखिर जनता की सुधि कौन लेगा?
दूसरा, एक ये भी सोचना पड़ता है कि हमारे यहाँ धन की पूजा होती है,लक्ष्मी का स्थान बहुत  ऊँचा होता है ,उसे किसी के गले में डालने की अनुमति कैसे हुई ?ये धन एकत्रित कैसे हुआ ;जनता का ही गला काट  कर मुख्यमंत्री का गला सजा |वाह  भाई वाह क्या नखरे होते है इन मंत्रियों के|देख कर शर्म आती है की आये दिन रुपयों की बर्बादी.....कभी पार्क बनाने में तो कभी पत्थर की मूर्तियों पर रुपयों की बरसात कर के|आखिर इन्हें इतना अधिकार क्यों मिलता है?
इन सब मामलों में फंसती है,बिचारी मध्यम वर्गीय परिवार ,जिन्हें सब तरफ की मार सहनी पड़ती है|किन्तु इन भ्रष्ट नेताओं की आँखें नहीं खुलती|आज हम स्वतंत्र भारत में रहकर भी इन नेताओं की बेरहमी और बेशर्मी को देख रहें हैं, बर्दाश्त कर रहे है| इतिहास फिर दोहरा रहा है जब राजा आपस में झगड़ते थे दिखावा करते थे और राज्य की जनता कुछ नहीं कर सकती थी जिसका राज्य रहता था उसीका बोलबाला होता था ठीक वही दुर्दशा आज भी नज़र आ रही है दूसरे नेता इन मुद्दों पर उछल सकते हें किन्तु जिस जनता का धन बर्बाद हो रहा है वो सिर्फ मुंह ताक रही है|वाह रे स्वतंत्र भारत ,जिसकी आज़ादी के लिए कितने देश भक्त शहीद गए|पर देश आज इस कगार पर है कि जहां सिर्फ और सिर्फ खिंच तान मची है ,कोई रुपयों का हार पहन रहा है तो कोई मंत्री अपने सात  पुस्तों के लिए जोड़ कर रख रहा है जिस राज्य को सम्भालने के लिए सत्ता सौपी गयी है उसकी जनता अपने में रो रही है किन्तु उसका आंसू पोछने वाला कोई नहीं है ......आखिर ये कब तक चलेगा ......कब तक जनता अपना धन लुटते हुए देखेगी ......इन सब प्रश्नों का जवाब क्या कोई दे पायेगा??????

सोमवार, 15 मार्च 2010

गुढी पाडवा


गुढी पाडवा अर्थात चैत्र मास की  प्रतिपदा महाराष्ट्र में मनाये जाने वाला नववर्ष|नूतन वर्ष का यह पहला दिन|पौराणिक काल  से ही यह मान्यता है की इसी दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की|अतः इस दिन सुबह घरघर में ध्वजा फहरायी जाती है|सभी देवी देवता की पूजन की जाती है|गुढी पाडवा  के दिन मराठी लोग अपने घरों की साफ सफाई कर घर के सामने शुभकारी गुडी लगाते है|द्वार पर तोरण लगा कर और रंगोली सजा नव वर्ष का स्वागत किया जाता है|एक लम्बी लकड़ी पर नीम एवम आम के पत्ते, रेशमी वस्त्र, गांठी , फूलों के हार  आदि लगा कर उस पर चंडी ,तांबा,पीतल अथवा स्टील का छोटा लोटा लगाया जाता है| इसका विधिवत पूजन कर महाराष्ट्रीय लोग नव  वर्ष का स्वागत करते है|
गुडी पाडवा अपने साथ वसंत ऋतु की समाप्ति और ग्रीष्म की शुरूआत की सूचना लाता है|इस दिन नीम की पत्तियां चबाने अथवा  नीम की पत्तियों की चटनी बनाने का भी चलन है|गुढी को विजय पताका माना जाता है,जोमन में वीरता और उत्साह का संचार करती है |गुढी पाडवा का पर्व नव वर्ष के आगमन के साथ ही समानता ,विश्व बंधुत्व और सत्य तथा धर्म की राह पर चलने  का सन्देश देता है|

रविवार, 14 मार्च 2010

हम इन बाबा को इतना महत्व क्यों देते है?

आजकल प्रतिदिन समाचारों में देखने को मिलता है ढोगी संतों के बारे में,जिनके बारे में  सुनकर निगाहें शर्म से झुक जाती हैं |लगता है की इनका क्या अस्तित्व है |ये क्या साबित करना चाहते है कि ईश्वर पर से लोगों का विश्वास हट जाये?ये संत जो कि वास्तव में योगी ना होके भोगी हैं जिन्हें पग पग पर ऐएशो आराम कि वस्तुए चाहिए तीमारदारी के लिए सेवक चाहिए क्या ये संत कहलाने लायक हैं ये तो वास्तव में लालची दरिन्दे हैं जिन्हें संत कि परिभाषा ही नहीं मालूम है|
संत वो होते है जिन्हें सांसारिक माया का मोह नहीं होता ,उन्हें अपनी काया का ध्यान नहीं होता उनका जीवन वैरागी होता है, वो नदी किनारे कुटिया में निवास करते है, जहाँ वो अपने ईश्वर में रमते हुए जीवन यापन करते हैं |किन्तु ये आधुनिक युग के योगी जो अपने स्वार्थ के लिए ही संत का रूप अपनाया है, इनके पीछे हमारी जनता आखिर क्यों भागती है?माता पिता का तिरस्कार कर इन ढोगी साधुओं की सेवा में लग्न कहाँ तक उचित है?आखिर  इनको बढ़ावा देने में कहीं जनता का हाथ है जो की इच्छाधारी,नित्यानंद ,आसाराम ,जैसे हजारों बाबा के चरणों को धो कर पी रहे है अचानक इतने भगवान कहाँ से धरती पर टपक गए है की व्यक्ति अपने कम काज को छोड़ इन संतों के पीछे लग गया है? 
किन्तु  अब भोली भाली जनता को समझना  पड़ेगा अपनी आखें खोलनी चाहिए की  सारे ईश्वर, देवी, देवता, अपने ही घर में हैं ,किसी निर्धन की सेवा करने से ज्यादा पुण्य प्राप्त होगा ना की इन ढोगी संतों का साथ देने से|शायद जिस दिन जनता ये समझ जाएगी  उस दिन से बाबा की सख्या में थोडा कमी हो जाएगी |क्योकि असली संत वही है जिसे स्त्रियों को छुना वर्जित हो ,और वो संसार की मोह माया .गाड़ी फोन,कम्प्यूटर दिखावे की चीज़ों से परे हो| किन्तु  आज  के समय में ये बहुत मुश्किल है......इसलिए  घर के ही देव का महत्व देना चाहिए ना की संतो का .........................

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

होली के दिन ......





होली का त्योहार आते ही बचपन के दिन आखों के सामने घूम जाता  है अब ना तो वो समय रहा ना ही माता पिता रहे ना ही वो घर रहा जहां बचपन बीता, आज होली में उत्साह भी नहीं दिखता जो हमारे बचपन मन होता था शायद इसका कारण है अब हम ज्यादा विकसित हो गएँ है या फिर यूँ  कहिये कि अब हम आलसी हो गए है जो त्योहार को मनाने में हिचकिचाते है| अब वो खुशबु घर घर से आनी कम हो गयी हैं अब वो चुहल रंगों  को लेकर एक दूसरे पर डालना, हफ्ते भर पहले से तैयारियां शुरू हो जाना, ये चीज़े अब कहाँ रही?
मुझे आज भी याद  है जब हम सभी बैठकर होली की  तैयारियां करते थे कि सुबह कितने बजेसे होली खेलेगे और होली के दिन सुबह से हम सब मिलकर एक दूसरे को रंग लगाना शुरू कर देते थे,दोपहर दो बजे तक हम लोग रंगों में सराबोर रहते थे|शायद मैं उत्तर भारत के बाहर हूँ इसलिए मुझे लगता है कि त्योहार कि कमी हो गयी है|क्योकि होली का असली मज़ा हमारे इलाहबाद में ही है जब भईया तीन दिन कि होली खेली जाती है |और रंगों को छुड़ाने में पूरा एक हफ्ता लगता है, भाई तभी तो पता चलता है की हमने भी होली खेली है अगर रंग लगाओ और तुरंत छूट गया तब तो पाता ही नहीं चलेगा की हमने भी होई खेली है, फजीहत होती है नयी बहु और दामाद की जिन्हें हमारी होली का पता नहीं होता और बिचारे फंस जाते है हमारे रंगों के जाल में |हम लोग नए लोगों का स्वागत करना खूब जानते है इसीलिए ढूंड ढूंड कर पक्के रंगों का इंतजाम रखते है अरे भाई ससुराल की पहली होली तो ऐसी होनी चाहिए जिसे हमेशा अच्छी यादों में रक्खे|
मेरा ससुराल तो मेरे पीहर जैसे है जब भी मै वहाँ होती हूँ  बहुत ही मस्ती करती हूँ वही जब मुझे घर से हट कर होली में रहना पड़ता है तो केवल यादे ही साथ रहती है वो मस्ती, वो अपनापन जरुर अखरता है|यद्यपि जहां भी रहती हूँ कोशिश यही रहती है की सभी को अपने रंगों में मैं रंग लूँ लेकिन फिर भी मुझे वहाँ की सस्कृति में रंगना पड़ता है ...........होली की यादे तो इतनी है की एक पन्ना यदि खुला तो वो कड़ी एक में एक जुडती  जाएगी होली का त्योहार  चला भी जायेगा लेकिन यादे ख़त्म ना होगी|
होली की ढेरों शुभकामनाये!!!!!!!!!!
फाल्गुन मास आया,साथ अपने रंगों का सौगात लाया,
पूरा मास फाग गया अपनों ने,
सबने मिलकर कान्हा को नहलाया ,
वृन्दावन में,
बरसाने की होली ने प्रसिद्धी पाया,
आओ हम सब मिलकर,
एक दूसरे को रंगों से नहलाये ,
सबको गुझिया, और मिठाई खिलाये,
दिल से बैर निकालकर 
सच्चे मन से सबको गले लगाये,
यही है असली त्योहार ,
जब सबके मन में जगे विश्वास..... 

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

अब पत्र लिखने का जमाना तो गया ...........

आज का युग वैज्ञानिक युग है जहाँ हम कागज कलम पर लिखना नहीं चाहते|बच्चों को जब भाषा के तहत पत्र लिखना पड़ता है तो  उनके पसीने टपकते है,फिर रटा कर लिखना पड़ता है|अभी एक दिन मुझे अपने माता पिता की बहुत याद आया रही थी शायद  उनके रहते इतनी याद ना आई होगी जितना उनके ना रहने पर याद सताती है तो मैने अपने पुराने कागज  निकाले  जहाँ मेरे शादी के बाद मेरे पिता द्वारा भेजे कुछ पत्र मुझे मिल गए साथ ही मेरी माँ के भी कुछ पत्र मिले मैं उन पत्रों को अपने कलेजे से लगा कर यही सोच रही थी कि ये तो दो चार पत्र मुझे मिल गए इसे मै हमेशा अपने से चिपका कर रखूगीं किन्तु आज इस बदलते युग में अब तोसब फोन पर बात करते  है,वेब कैम पर बात  होती है, लोग पत्र भी लिखते है तो इ मेल के जरिये|यदि किसी कि लिखावट रखना हो तो क्या हमें मिल पायेगा?
       अभी हम जब संग्राहलय में जाते है तो गाँधी, नेहरु के लिखे पत्र किताबें मिलती है किन्तु आगे संग्राहलयों में सबके कम्पुटर ही देखने को मिलेगे जिन्हें संग्राहलयों  सम्भाल कर रखा जायेगा....आज हम लिखना भूल रहें हैं, पोस्टकार्ड, अंतर्देशी ,बच्चों को पता  ही नहीं होता कि ये किस चिड़िया का नाम है|पोस्टमैन का अब कौन इंतजार करता है?डाकिया डाक लाया कि जगह अब कहा जायेगा देखो मेल सन्देश लाया.या फिर देखो फोन आया .......फोन से मुझे याद आया मै मेरी माँ से रात को बात किया एवम सुबह खबर आई कि वो इस दुनिया में नहीं रही, इस बात के दस वर्ष हो गए मैं उस दिन का सोचती हूँ जब मैने आखिरी बार बात किया था कि मैने माँ से क्या क्या कहा था किन्तु एक दो वाक्य के आगे याद नहीं आता क्योकि मैने ये नहीं सोचा था कि मैं आखिरी बार बात कर रही हूँ वहीँ जो पुराने पत्र रखें हैं वो आज भी बीती बातों कि याद ताज़ा कराते है| 
पत्र लिखना भी एक कला होती है जो आज के बच्चे भूलते जा रहे है|क्योकि आज का युग पूरी तरह से फोन पर अटक गया है |लिखने में कौन समय गवाए चलो फोन पर बात कर लेते है | इसलिए अपनी बात पन्नो पर कोई भी नहीं उतरना चाहता |किन्तु मुझे ऐसा लगता है कि स्कूल कालेजों में एक बार फिर पत्र लिखने का अभियान चलाना चाहिए,जिससे बच्चों को लिखने कि जागरूकता आये खासतौर  से  अंग्रेजी माध्यम से पढने वाले बच्चों को ये मालूम हो कि डाक ,डाकिया और डाकखाना क्या होता है|अपनी मन कि बात खत के जरिये कैसे उतरा  जाता है|ख़ैर...ये तो मेरे मन कि बात थी कि पत्र लिखना कितना जरूरी है,यादे इससे ताज़ा रहती है लेकिन सबका सोचना अलग होता है किन्तु फिर भी मैं यही कहूँगी  कि पत्र के अपने बहुत महत्त्व होते है..... हम मेल और एस ऍम एस में किसी के हाथ कि लिखावट को नहीं पा सकेगे|

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

1411 बाघ बचे हैं


1411 बाघ बचे हैं आजकल चारों  तरफ विस्तृत रूप से फैला है|अब मुझे समझ नहीं आता कि अब मै क्या करूँ .....जा कर जंगल में डेरा डालूं ??????आप ही सोचो ये तो एक दिन में हुआ नहीं तो अचानक बाघों कि चिंता सरकार  को क्यों हो गयी ...मेरा सोचना तो ये है कि इतने आतंकवाद,इतनी पार्टियों के बीच की खींचतान,नेताओं का बाघपन ही कारण है जो की असली बाघों पर गाज बन कर गिरी  और इश्वर की मर्ज़ी से अब केवल 1411 बाघ बचें  हैं |
हाय बिचारे बाघ,लेकिन इनके दिन भी लौट आये है चाहे सरकार इंसानों को ना पूछे लेकिन सरकार की गाज सरकारी अफसरों पर  जरुर पड़ी है चाहे वो बिचारे अपने बच्चों का कम सोचें लेकिन बाघों के लिए पूरा ध्यान रखना ही उनका फ़र्ज़ हो गया है क्योकि अब तो ये बाघ भी सरकारी मेहमान हो गए है| कोई जमाना था जब राजा की शान होती थी शेर बाघ के शिकार का ,अब जमाना बदला समय बदला और ये जानवर बन गए सरकारी दामाद |एकदम बारात के दुल्हे के मुताबिक इनकी देख रेख करना सबका कर्तव्य बन गया है|
अब इनको बचाने का खर्चा सोचो,प्रत्येक टीवी  चैनल पर बाघ बचाओ कार्यक्रम  चल रहा है इसके लिए क्रिकेटर या फ़िल्मी स्टार  विज्ञापन के लिए लेते है आगे हम सब समझ सकते है ............अब हर समय एक और डर रहता है कि १४११ से १४१२ तो  हो जाये लेकिन ......चलो आखिरी में मै यही भगवान से प्रार्थना करुँगी कि हे महामहिम ईश्वर बाघों पर नजर मत लगाना उनकी दिन दुनी रात चौगुनी प्रगति करना....बाघों का परिवार बढ़ेगा तो हमें भी सुख शांति मिलेगी.............
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रविवार, 21 फ़रवरी 2010

हाय ये बोर्ड परीक्षा से बदलता मौसम..

उत्तर भारत में ठण्ड की मार अभी खत्म होनी शुरू  हुयी है,मौसम बदलने लगा कुछ लोगों के यहाँ मौसम ज्यादा गर्म हो चुका है क्योकि उनके यहाँ बोर्ड परीक्षा है.....माता पिता को ज्यादा पसीने छूट रहें हैं किसी को दसवीं की परीक्षा की चिंता है तो  कहीं ज्यादा पसीने बह रहे हैं क्योकि बारहवीं  की बोर्ड परीक्षा का सामना करना है|कपिल सिब्बल तो बहुत कोशिश कर रहें हैं, किन्तु ये आदत ऐसी हो गयी है की बिना टेंशन लिए नीद नहीं आती|आजकल नम्बर की मारामारी ऐसी हो गयी है कि बच्चे जितना नम्बर लाते है हमें उससे ज्यादा कि उम्मीद रहती है|ख़ैर बच्चे तो बच्चे ही है..........
अब बात आती है हमें मौसम के हिसाब से कितना बदलना चाहिए?आजकल टेलिविज़न पर समाचारपत्रों में प्रत्येक जगह ये बताया जाता है कि बच्चों पर प्रेशर मत डालो |हम जैसे माता पिता बहुत डर जाते है कि सच में बच्चों के ऊपर किसी भी प्रकार का दबाव नहीं डालना चाहिए|अब मेरा बेटा जो कि दसवीं में है वो तो समझदार है जिसे स्वयं ही चिंता रहती है किन्तु मैने ऐसे भी बच्चों को देखा है जो कि इन आर्टिकल को खूब भुना रहे है अब दुविधा ये होती है कि बच्चों को पढने के लिए कितनी सीमा तक कहना उचित होगा क्योकि बच्चों के आजकल बढ़ते कदम माँ पिता को धर्म संकट में डालते है| यदि ज्यादा कहते हैं तो सबसे सुननी पडती है कि बच्चों पर अनावश्यक दबाव डाल रहे हो समाचारपत्र पढ़ा  करो...... 
लेकिन कभी कभी सोचना पड़ता है कि यदि हम इन्हें नहीं बतायेगे तो इनका जीवन कैसे बनेगा|मेरा मानना एक है कि बच्चों को शुरू से जिम्मेदारी देनी चाहिए जिससे आखिरी वक्त पर किसी भी प्रकार का दबाव ना देना पड़े केवल कोचिंग के भरोसे नहीं रहना चाहिए|समय ऐसा निर्धारित होना चाहिए कि उसमे पढाई, खेल, सोना(पर्याप्त निद्रा भी अति आवश्यक है ) सभी  कुछ बराबर आ जाये|बच्चों को नंबर के लिए दबाव मत दो किन्तु उनका समय भी ना बर्बाद हो ऐसा ध्यान रखना चाहिए|वारदातें वहाँ ज्यादा होती है जहाँ घर का माहौल थोडा सकुचित होता है|मानसिकता सकुचित नहीं होनी चाहिए |मेरा तो ये मानना है कि कोई भी कार्य करो किन्तु वो प्रोफेशनल होना चाहिए,अब जावेद हबीब काटने को तो बाल की कटाई करता है देशी भाषा में, किन्तु प्रोफेशनल होने की वजह से हेयर ड्रेसर बोलते है|कहने का तात्पर्य यही है की पढाई बहुत जरूरी है उसे कभी भी नकारना नहीं चाहिए बच्चों को हमेशा बताते रहना चाहिए|
आखिरी में यही कहना चाहुगी की मौसम को ही बदलने दो जबरदस्ती पढाई के लिए घर का मौसम ना बदलो खुद जियो  और औरों को भी जीने दो.....बच्चे अपने हैं उन्हें मार्ग दर्शन कराना हमारा कर्तव्य है इसमें कुछ बुरा नहीं है ये बात बच्चों को भी समझना चहिये|समय रहते ही चेतना चाहिए......

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

टीवी ड्रामा ...राहुल दुल्हनिया ले जायेगा.........

इन दिनों पैसा बनाने की होड़ में सभी टीवी चॅनल वाले लगे है फिर शो चाहे जैसा भी हो?इसके  बारे मैने पहले भी जिक्र किया था किन्तु मुझे ये नहीं मालूम था कि ये इतना घटिया शो होगा|सबसे पहले दूल्हा जिसके स्वयं के चरित्र का अता पता नहीं है| मुझे जो बात सबसे ज्यादा खटकती है इस शो में  वो ये कि  फिर से नारी को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है जहाँ राहुल महाजन जैसे लोग तय करेगें कि लड़की उनके काबिल है कि नहीं?अब तो यही सोचने का दिल करता है कि सूप तो सूप अब चलनी भी बोलने लगी जिसके खुद में बहत्तर छेद  हैं|
एक तरफ तो हम नारी के सम्मान कि बात करते है दुसरी तरफ नुमाईश लगा कर पन्द्रह लडकियों को बैठा कर नारी का अपमान कर रहें हैं |छोटी छोटी बात पर हमारे  समाज  सुधारक नेतागण बगावत पर उतर आते है ये सिनेमा नहीं दिखाने देगे या फिर इस नेता को नहीं आने देगे या फिर  खेल सम्बन्धी बखेड़ा........किन्तु क्या ऐसे प्रोग्राम उन्हें दिखाई नहीं पड़ते या फिर उन्हें ऐसे कार्यक्रम रास. आते है|नारी कि शोभा आगे बढने में है नाकि पीछे जाने में |नारी मर्यादा कि मूरत है|हमारे देश कि महिलाओं का यदि सोचा जाये जिनको हमारे यहाँ सम्मान से देखा जाता है तो दिल करता है कि काश हम भी ऐसे ही होते चाहे वो लता मगेश्कर हो, या फिर इंदिरा गाँधी|या फिर  मदर टेरेसा, या फिर किरन बेदी कुछ महिलाये विदेशो में भी झंडा लहराया है जैसे इंदिरा नूयी ,सुनीता विलियम्स इत्यादि|इन पर देश को नाज़ है| किन्तु ये  छिछोरापन जिसे देखने में भी शर्म आती है|उनका क्या करें?


क्या टीवी के ऐसे कार्यक्रम का अकाल पड़ गया है जो इस प्रकार का शो दिखाया जाता है|जिसमें लडकिया क्या साबित करना चाहती है कि मैं राहुल के काबिल नहीं हूँ या फिर लालच है कि इस शो से आगे कैरियर बनेगा चलो कैरियर कि बात तो समझ आती है किन्तु ऐसे फटे  हाल  प्रोग्राम से....इठलाती  मंडराती ये लडकिया, क्या यही कैरियर है?????????ख़ैर...ये तो हमारे समझ के परे है....शायद हम ठहरे बहनजी टाईप जिसे ये रासलीला समझ नहीं आती या फिर यूँ कहिये कि ये बातें हजम नहीं होती |मुझे तो जिन्दगी बिंदासी कि अच्छी लगती है ना कि गुलामी कि जहाँ हमारी परीक्षा ले ले कर हमें हर तराजू पर तौला जाये................ 

सास बहु हर घर की कहानी, नारी ही नारी की दुश्मन

ये पुरातन से चला आरहा है, कि सास और बहु का किस्सा, करीब करीब हर घर का रोना होता है|सास बहु कि बुराई करती है तो बहु सास की| समझ नहीं आता कि गलत कौन है?बहु अपना राग अलापती है अपने पति के सामने तो सास अपने बेटे से बहु की शिकायत पहुंचती है\ऐसे में फंसता है बेचारा बेटा ,माँ की ना सुने तो बुरा पत्नी की ज्यादा सुने तो मुसीबत|मुझे इस सास बहु के एपिसोड का एक चीज़ समझ से परे होती है कि ये नखरे एवम गलत सही का फैसला सास बहु बैठ कर स्वयं क्यों नहीं कर लेती?आज का युग तो पढ़े लिखे वर्ग का है फिर भी सास बहु कि मुसीबत क्यों नहीं कम  हो रही है?
इसका कारण है कि नारी ही नारी कि दुश्मन होती है|जिसमें सब घर का अलग अलग तरीकें है कहीं सास समझदार होती है तो बहु नहीं होती और कहीं बहु समझदार होती है तो सास समझदार नहीं होती|और बंटाधार तब होता है जब दोनों में नासमझी होती है|हर लड़की शादी के ढेरों सपने बुन कर ससुराल जाती है किन्तु जब उन सपनो को रिश्तों के सिमित दायरे में बांध कर उन सपनों को रौंद दिया जाता है तो उस लड़की का शादी पर से विश्वास हट जाता है|उसका दिल दुखता है आत्मा से हाय निकलती है|उसके आत्मसम्मान पर ठेस लगती है उस समय ससुराल के प्रति उसकी नफरत पनपती है जो कभी भी नहीं खत्म होती |ये मेरी आखों देखी बात है,मैं किस्मत कि धनी हूँ मुझे इसका व्यक्तिगत अनुभव नहीं है किन्तु मैने बहु पर होने वाले अत्याचार को बहुत करीब से देखा था तब मैं छोटी थी मेरे बालमन पर इसका गहरा असर पड़ा था लगता था कि शायद शादी बहुत खराब चीज़ है |कोई भी लड़की जब दूसरे के घर जाती है वो उस पौधे के समान होती है जो एक जगह से निकाल कर दूसरे जगह लगा दिया जाता है उस पौधे को भी मिटटी पकड़ने में थोडा वक्त लगता है एक बार वो मिट्टी पकड़ लेता है तो बहुत जल्दी आगे बढ़ता है किन्तु उस पौधे को यदि कोई हिलाता है तो वो पनप  नहीं पाता ,ठीक  उसी प्रकार यदि बहु को भी प्यार सम्मान से रखा जाताहै तो वो उस घर में रंग जाती है अन्यथा उसे अपना पीहर ही याद आता है जहाँ वो अपना मान सम्मान छोड़ कर आती है|


अब यदि हम दूसरा पहलू देखे जहाँ सास अच्छी होती है जो कि आजकल बड़े शहरों में अक्सर हो रहा है कि सास बेटी और बहु में फर्क नहीं समझ रही है वहाँ यदि सास कि इक्षाओं का दमन होता है तो वो भी खराब है वहाँ मैने अक्सर देखा है कि माँ को केवल पहले जैसे बेटे से प्यार के दो बोल चाहिए किन्तु विवाह के पश्चात कुछ बहुएं ऐसी भी होती है जिन्हें पति का घर  परिवार से लगाव पसंद नहीं आता |मुझे एक बात समझ नहीं आती ऐसा क्यों होता हैआखिर नारी अपने संस्कार कहाँ भूल गयी है उसका प्यार ,बडप्पन कहाँ खो गया है?
ये सास बहु का किस्सा कब तक चलेगा?मै यहाँ केवल कुछ लोगों कही नहीं सोच रही हूँ क्योकि मैं भी उन कम लोगों में हूँ जिसे इसका अनुभव नहीं है|किन्तु यदि हम उन पीड़ित लोगों का सोचे तो उनका जीवन नर्क बन जाता है सुख शांति चली जाती है|ये तनाव ही तरह तरह की बिमारियों को जन्म देता है|मेरा विचार तो ये कहता है या फिर यूँ भी कह सकते है  कि मेरा  अनुभव ये कहता है कि बड़ों को सम्मान दो छोटों को स्नेह अपने फर्ज़ से कभी भी ना हटो,बहु को चाहिए कि शादी के बाद ससुराल उसका घर है उसे पुरे अधिकार से रहना चाहिए साथ अपने कर्तव्य को निर्वाह करना चाहिए|सास को भी अपना समय याद करना चाहिए जब वो बहु बन कर आई थी अपने अरमानों के साथ   ठीक उसी  प्रकार बहु भी होती है यदि दोनों समझ लें एक दूसरे को और सास बहु ना होकर एक सहेली कि तरह व्यवहार करे तो शायद समस्या का समाधान हो जाये.......लेकिन दुविधा तो केवल एक है कि नारी नारी की प्रतियोगी होती है, एक दूसरे की तारीफ बर्दाश्त नहीं है तो कहाँ से समस्या का समाधान होगा?

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

आखिर हमारा देश पिछड़े देशों में क्यों है?

ये गौर करने लायक बात है कि हमारा देश सारे  देशों के मुकाबले पिछड़ा क्यों है? इसका एक कारण तो तय है कि हम लोग काम  में कम दूसरों कि  टांग खीचने में वक्त ज्यादा बिताते है|आज जैसे  वेलेंटाइन दिवस है सारे चैनल पर  इसकी ही चर्चा है - कहते है कि हम संस्कृति को बचा रहे हैं| क्या सही मायने में संस्कृति बच पा रही है?नहीं और अराजकता बढती है? ये तो छोटी सी बात थी समाज की, किन्तु  यदि हम सही अर्थ में देखें तो घर, बाहर ,कार्यालय हर जगह लोग  दूसरों के   पीछे ज्यादा वक्त बर्बाद करते है,|
हमारे यहाँ की राजनैतिक पार्टियाँ एक दूसरे की टांग खीचने में लगी रहती हैं,यदि कोई अच्छा कम करना चाहे तो उसे करने नहीं मिलता|सबको अपनी तिजोरी भरनी होती है|कोई सामाजिक गठन यदि कार्य करना भी चाहे तो अगली  पार्टी आकर उसे  कार्य करने को रोक देती है|इस हाय हाय में कोई आगे आना नहीं चाहता |ठीक इसी  प्रकार कार्यालय में भी एक दूसरे के पीछे पड़े रहते है  अधिकारी  मख्न्बाज़ी में विश्वास रखते है साथ ही रिश्वत लेने में  भी,अब बात ये आती है कि जब हम केवल अपनी जेब भरेगे और दूसरे कि बुराई  ही सोचेगे तो अपनी जिम्मेदारी से मुकर कर आज का काम कल पर टालते रहेगे तो आगे हम कैसे बढ़ेगे ?

हम किसी भी समूह  , समुदाय , समाज में खड़े हो जाएँ हमें वहाँ भविष्य में आगे बढ़ने कि बात बहुत कम सुनने को मिलेगी  किसी ना किसी को नीचा दिखा कर स्वयं को सर्वोपरी बताना आम बात हो गयी है|यही विदेशी कम्पनियों  में काम की प्रधानता रहती है |वहीँ सरकारी कार्यालय अपनी आलस्यपन के कारण पूरी तरह बदनाम हो चुके है|यदि ये सरकारी विभाग अपनी  मुस्तैदी से कार्य करे तो देश को तरक्की करने में कितनी आसानी होगी|कष्ट वहाँ आता है जब कोई सरकारी अधिकारी अपने कार्य में सक्षम होता है किन्तु उसे अपने तरीके से कार्य नहीं करने दिया जाता |

अब मै यही सोचती हूँ कि यदि हम सभी भविष्य का सोचें दूसरों के काम में दखलंदाज़ी ना करे तो हम तरक्की पायेगे और अपना देश आगे आएगा|इसमें एक कारण और जुड़ता है जिनका मन मस्तिष्क इसमें नहीं होता वो जानते है कि यहाँ शायद उनका काम उनके मन मुताबिक ना हो पायेगा वो अपने जीवन को सवारने विदेश  चले जाते है, एवम भला विदेश का ही होता है  उधारण सुनीता विलियम्स और कल्पना चावला |यदि हमारी सोच एवम समझ बुरायिओं  से हट कर वास्तविक जीवन पर आजाये तो हम भी ना जाने कितने हीरों को तराश कर कोहिनूर बना सकते है..........

वेलेंटाइन दिवस केवल 14 फ़रवरी को ही क्यों ?

  १४ फ़रवरी को   वेलेंटाइन दिवस क्यों मनाया जाता है? क्योंकि सन  1400 से 14 फरवरी को यह इग्लैंड में  मनाया  जाता  रहा है|धीरे धीरे इसने  सब जगह अलग अलग रूप  ले लिया|अब मेरे दिल में केवल एक प्रश्न उठता है कि क्या हमें प्रेम का इज़हार केवल एक दिन १४ फ़रवरी को ही करना चाहिए या हमेशा बरक़रार  रखना चाहिए|आज हमारे समाज में वैवाहिक जीवन में इतनी कडुवाहट भर चुकी है कि वो चाहे प्रेम विवाह हो या फिर माता पिता का सुझाया विवाह हो - कुछ दिन बाद सब एक बराबर हो जाता है |
हम आजकल प्रत्येक चीज़ कि नकल करते हैं सो हमने इसका भी नकल कर लिया|इस वेलेंटाइन दिवस से काफी लोगों का फायदा भी होता है, जैसे कार्ड बनाने वालो का, गुलाब के फूल बेचने वालों का, नेताओं का ,मिडिया का, और सबसे बड़ा फायदा होता है उन लोगों का जो हमेशा झगडे में विश्वास रखते है, और इस दिन एक गुलाब का फूल या फिर एक गुलदस्ते को दे कर सारा साल फिर झगड़े कि ठान लेते है| क्या  यही सच्चा प्यार है? 
यदि मुझे इसे परिभाषित करने को कहा जाये तो मैं यही कहूंगी कि वर्ष के 365 दिन ही वेलेंटाइन दिवस होने चाहिए प्रत्येक दिन  ही गुलाब के फूल के भांति खिले होने चाहिए|दोनों को आपस में विश्वास एवम समझदारी होनी चाहिए| आज के युग में मनाये जाने वाले इस  वेलेंटाइन दिवस को हमें ऐसा मनाना चाहिए जिससे खुशियाँ मिले केवल हम एक ही दिन पर क्यों निर्भर रहते है.क्या बाकि दिनप्रेम के इज़हार का दिवस नहीं होता|और दूसरे नजरिये से अगर हम देखें तो ठीक भी है कि चलो कम से कम एक दिन तो प्यार का इज़हार कर लो बाकि के 364 दिन का तो पता नहीं?
मैं आखिरी में एक ही चीज़ दोहराना चाहूंगी कि हमे हमेशा वेलेंटाइन दिवस मनाना चाहिए नाकि केवल 14 फ़रवरी को केवल |किन्तु मेरे अकेले के सोचने से क्या होगा??????

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

बच्चे के जन्म के साथ माँ का एक नया जन्म होता है

ये सही है की एक बच्चे के जन्म के बाद माँ को नया जन्म मिलता है, माँ बढ़ते बच्चे को नौ माह तक अपनी कोख में संभाले रहती है  फिर होता है बच्चे का जन्म,तमाम तकलीफों के पश्चात एक बच्चे का जन्म होता  है और माँ को मिलती है नई जिन्दगी|मैं ये नहीं जानती की सब माँ ऐसा ही सोचती है या फिर मैं कुछ ज्यादा सोचती हूँ कि बच्चों को पालने में ज्यादा जिम्मेदारियों को उठाना पड़ता है मेरे गणित के हिसाब से बच्चों को अच्छी शिक्षा ,अच्छे संस्कार,उनके परिपक्व हो जाने तक उनकी देख रेख, उनके बदलते उम्र के हिसाब से स्वयं को भी ढालना,इत्यादि ऐसी गतिविधियाँ होती है जिनसे एक माँ पूरी तरह परिपक्व हो जाती है|
ऐसा सब माँ के साथ होता है| किन्तु कुछ माँ ऐसी भी होती  है जिन्हें कहीं इससे ज्यादा कष्ट उठा कर बच्चों को पालना पड़ता है|जब किसी कारणवश पति का साथ छुट जाता है कभी ये इश्वर का दिया कष्ट होता है और कभी ये उनकी मजबूरी होती है|जो भी है वो बच्चों को पालती है, बच्चे बड़े हो जाते हैं उनकी शादी होती है लड़की है तो अपने ससुराल जाती है और लड़का हुआ तो लड़की घर आती है और उसके पश्चात् यदि लड़की समझदार है तो उस माँ के जीवन से सीख लेगी अन्यथा रोज़ का महाभारत कोई भी नहीं रोक सकता ये आये दिन कि कहानी हो गयी है| यकीन मानिये जब ऐसे वाकये सामने आते हैं तो दिल दहल जाता है कि लोग केवल पति  तक ही रिश्ता क्यों रखना चाहते  है? 
विवाह एक ऐसा पवित्र रिश्ता होता है जो कि पति पत्नी के साथ ही और रिश्तों का भी जन्म देता है| हर रिश्तों कि अपनी अहमियत होती हैऔर जब हम माँ बन जाते है तब तो माँ के दर्द एवम ममता कि लाज रखनी चाहिए | केवल आज़ादी कायम रखने के लिए हम रिश्तों को तोड़ते है ये कहाँ तक उचित है?यदि कुछ गलत लगता है उसे बात से सुलझाया जा सकता है, लेकिन समस्या एक है कि आजकल  हम कैरियर बनाने के चक्कर में रिश्तों के अहमियत को भूल गए है, मैने तो यहाँ तक देखा है कि फोन से भी बात करना जरूरी नहीं समझा जाता|मै जब ऐसा माहौल देखती हूँ तो मेरा दम घुटता है,लगता है कि कैरियर बनाओ किन्तु रिश्तों का गला मत घोटो|
माँ ने कष्ट सह कर जन्म दिया है एवम पाला है उसका सम्मान करो यदि कुछ गलत लगता है तो हक़ से बोलो लेकिन रिश्तों  को मत टूटने दो...........  

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

जैसी फसल हम बोते है ठीक वैसा ही काटते हैं.....

जैसी फसल हम बोते हैं ठीक वैसा ही काटते हैं अर्थात जैसा हम कर्म करते है ठीक वैसा ही फल हमें मिलता है| ये मेरी अजमाई हुयी बात है , ऐसा ही मै अपनी सोच नहीं लिख रही हूँ बल्कि मैने अपनी आँख देखी घटनाओं से अनुभव किया कि यदि कोई  अपने बड़ों कि सेवा करता है वो भी निःस्वार्थभाव से अपनी जिम्मेदारी के साथ, तो इश्वर भी उसका साथ पल पल देते है|
जब हम स्वयं बड़ों कि अवहेलना करेगे तो बच्चों पर वही असर पड़ेगा और वो वही सीखेगें|ये कहना सरासर गलत होता है कि हम तो अपने माता पिता का खूब करते थे किन्तु हमारे बच्चे तो ऐसा नहीं करते|क्योकि ये मैने अपने घर में ही आजमाया है कि मेरी दोनों माँ ( एक जन्मदाता दूसरी कर्म से अर्थात मेरे पति को जन्म देने वाली माँ,) दोनों ने भरपूर निःस्वार्थभाव से अपने सास ससुर की सेवा की|इसमें मेरे माता पिता नहीं रहे , ये कष्टकारी है मेरे लिए किन्तु मै अपने परिवार के सहयोग से  अपना पूरा फ़र्ज़ निर्वाह किया पिता की सेवा का मौका मिला वो किया किन्तु माँ ने इतने फ़र्ज़ किये थे कि इश्वर ने उनकी सेवा करने का वक्त ही नहीं दिया और उनका हार्टफेल हो गया|आज वो हमारे बीच नहीं हैं फिर भी मै यही कहती हूँ कि  मेरे   माँ और पिता है अलबत्ता उन्होंने जन्म मेरे पति  का दिया है किन्तु लाड स्नेह का  पूरा अधिकार मेरा भी रहता है इश्वर से यही दुआ मागुंगी कि उनकी सेहत हमेशा अच्छी बनी रहे|

कहने का एक ही मकसद है कि जैसे माँ अपने बच्चे को सीने से लगाती  है एवम पूरे ध्यान से पालती है यदि बच्चे उसका 50% भी कर पाए तो वो अपनी जिंदगी बना लेगें|मुझे एक ही चीज़ समझ में नहीं आती यदि कोई महिला ये कहती है कि ये सारी जिम्मेदारी हमारी ही क्यों है?हम किटी पार्टी कर सकते है हम मंदिर जा कर कीर्तन कर सकते है, शाम को कुत्ता घुमा सकते है किन्तु घर में बैठे अपने बड़ों को चाय नहीं पूछ सकते|हमें उनकी सेवा करना भारी लगता है किन्तु समाज सेविका कहलाने  में गर्व महसूस होता है|हम अपने ऊपर भरपूर खर्च करते है किन्तु परिवार में देने के समय हाथ क्यों रुकता है?
इसमें मैं एक चीज़ और लिखना चाहुगी जो महिला अपने पति पर गुमान करती है उसे सिर्फ एक बार सोचना चाहिए कि वो पति आया कहाँ से ?उसे जन्म किसने दिया?आप तो तैयार पेड़ पर आई हो , फल खाने के लिए , लेकिन उस माली की भी  थोडा परवाह कर लो जिसने इतना बड़ा पेड़ तैयार किया|क्योकि आप अच्छाई बुराई का फसल तैयार कर रहे हो वही आपका बच्चा देख रहा है अब वैसे भी दूरियां ज्यादा बढ़ रही है वो शायद याद करने में भी वक्त लगाये|और दूसरा अब मुझे एक चीज़ और भी लगती है कि आज के युग में यदि हमें वृद्धों कि सेवा का अवसर मिले तो इसे नहीं गवाना चाहिए क्योकि आजकल जिंदगी का क्या ठिकाना????
    

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

एक आस्था फूटपाथ पर गुज़र बसर करने वालों की

 आज मेरी कार मुंबई की सड़कों पर दौड़ रही थी,तभी मेरी निगाह अचानक फुटपाथ पर पड़ी, जहाँ काफी झुग्गी झोपड़ियाँ थी,अभी मै देख  ही रही थी कि तभी मुझे उन झोपड़ियों के बीच एक शिवालय दिखा| मैने गाड़ी ड्राईवर से रोकने के लिए कहा,ड्राईवर ने गाड़ी रोकी मैने उस मंदिर में दर्शन किया मदिर बहुत छोटा सा था किन्तु साफ था आस्था का दीपक पूरी रौशनी बिखेरे था वहाँ कोई महिला पूजा कर रही थी उसने गुड का प्रसाद  दिया|मै ये सोचने को मजबूर थी कि इनके पास धन नहीं है किन्तु ये अपनी झोपडी के बीच भी एक छोटा सा मंदिर बनाया है|मुझसे रहा नहीं गया मै उन झोपडी में रहने वालों से पूछ बैठी कि आपने ये मंदिर बनाया है या फिर मंदिर पहले से था ? उसमें से एक मजदूर ने बताया कि हमने ये जगह इसलिए चुनी क्योकि ये मंदिर था और हम लोग ये विश्वास रखते हैं कि हम भरपेट भोजन कर रहें है और तन ढंका है वो इनकी ही देन है|यदि हम इनके पास रहेगे तो हमें कार्य भी मिलेगा और दो वक्त कि रोटी भी|आगे जिज्ञासा मेरी बढ़ी मैने पूछा कि आप को इतनी आस्था है तो आपने कभी ये क्यों नही सोचा कि आपको ईश्वर ने और पैसे क्यों नहीं दिए?उसने जवाब दिया कि मेमसाहब यदि मेरी किस्मत इतनी अच्छी होती तो मै कहीं बड़े घर में जन्म लेता|
मैने बात आगे बढाया कि आप ऐसा क्यों सोचते है जन्म लेना ही सब कुछ नहीं होता इश्वर किआस्था एवम मेहनत आपको बहुत कुछ दे सकता है इस पर उस मजदूर के उत्तर ने हमें सोचने को मजबूर कर दिया ,उसने कहा आस्था और कर्म दो अलग  चीज़ हो कर भी एक दुसरे से जुडी है कर्म हम करते है जितना हमारे किस्मत में लिखा होता है,और आस्था पूजा हम करते है, और करना चाहिए जितना हमारे पास वक्त हो साथ ही दूसरी बात पूजा कुछ मागने के लिए ना करके आत्मा कि शांति के लिए करना चाहिए|अब हमारे पास कोई प्रश्न नहीं था मैं उस अजनबी मजदूर   से कुछ क्षण में ही बहुत कुछ सीख कर कार  में बैठ गयी|कार आगे बढ़ चली ये प्रातः काल का वक्त था ठंडी हवा के साथ ठंडी साँस मैने लिया,बस मैं एक चीज़ को सोचने को मजबूर थी कि झोपडी में रह कर आदमी इतनी बड़ी बात सोच सकता है कि पूजा - अच्छी सोच के लिए करो ना कि और पैसा पाने के लिए|काश....ऐसा सोच सभी की होती.......   

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

जिन्दा रहने पर पानी को तरसाए, मरने के बाद करे हो हल्ला से श्राद्ध

ये वाक्य पढ़ कर थोडा अजीब लगता है किन्तु वास्तव में आजकल ऐसा ही देखने एवम सुनने को मिलता है|कभीकभी बहुत आश्चर्य होता है कि आखिर लोग बदल कैसे जाते हैं| माता पिता कि तरफ से मुख कैसे मोड़ लेते है?जिम्मेदारियों से कैसे मुकर जाते है?मेरा एक अनुभव ये भी रहा है कि जिन माता पिता को पुत्री से ज्यादा पुत्र कि चाह होती है वो बाद में ज्यादा पीड़ित होते है|ये मेरा केवल अनुभव है, ये सच है ऐसा मैं नहीं कहती हूँ|लेकिन ये अनुभव कि जिदा रहने पर खाना पानी को भी लोग नहीं पूछते एवम मरने के बाद तुरंत शुरू हो जाती है मृतक के सारे सदगुण फिर  नकली आँसू उसके बाद श्राद्ध की तैयारी जैसे कोई बेटा  बेटी की शादी हो| बाद में सबके आगे अपनी बडाई करना कि श्राद्ध में तीन हजार लोगों ने खाना खाया|
ऐसा ही किसी के माँ के साथ हुआ था मुझे आज भी  याद हैकि उस लड़की को अपनी माँ कि बहुत चिंता थी वो सिर्फ मजबूर थी क्योकि भारतीय परम्परा में दोनों बँधे थे माँ बेटी के घर आने को तैयार नहीं थी वो अपने बेटे के पास ही रहना चाहती थी और बेटी को पीहर में ये कष्ट था कि वो भाभी के राज्य में माँ के लिए दिल खोल कर सेवा नहीं कर सकती थी| समय बीतता गया कष्टों को झेलती एक दिन बूढी माँ ने प्राण त्याग दिए|घर से किसी को चिंता नहीं हुयी कि बेटी को भी खबर कर दी जाये| तीन दिन बाद उसे किसी बहरी आदमी ने आकर बताया|बेटी ये सुनकर मूक बन गयी, उसने सोच लिया कि अब जब माँ नहीं है तो हम  वहाँ क्यों जायेगे, वो नहीं गयी|श्राद्ध हो जाने के बाद एक दिन उसका भतीजा आया और बताने लगा कि श्राद्ध नहीं वो तो ब्रह्मभोज लग रहा था,काफी गुणगान सुनने के बाद उस बेटी ने एक ही प्रश्न किया इतने लोगों ने खाना खाया उस पंगत में मेरी माँ कितनी बार बैठी और भोजन किया?उसके पास कोई जवाब नहीं था....... 
ऐसा वाकया बहुत मैने सुना और देखा है कुछ की मदद भी की,लेकिन ये सिलसिला कब तक चलेगा?ये दिखावा ,अपनी जिम्मेदारियों से परे हट कर|कुछ लोग पैसा भेजना ही अपनी जिम्मेदारी समझते है|वृद्धावस्था  में हाथ पैर की सेवा ज्यादा जरूरी होता है|यदि आप और आपकी  पत्नी दोनों नौकरी में हो समय नहीं दे सकते तो कम से कम ऐसी नर्स रख दो जो उनका ध्यान रख सके सुबह शाम आप भी हाल पूछ लो लेकिन कुछ तो ध्यान दो...अपनी जिम्मेदारियों से यूँ ना मुख मोड़ो.....श्राद्ध में केवल पांच ब्राह्मण खिला दो लेकिन जिन्दा रहते उन्हें घिसटने पर ना मजबूर करो...... नहीं तो बाद में वही कहावत चरित्रार्थ होगी की "बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होए"...

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

भारतीय परिधान साडी का आधुनिकीकरण

नवयुग आधुनिकीकरण का युग है|आज हम सब चीज़ों  को तोड़ मरोड़ कर आधुनिकता की चादर में लपेटे जा रहें  जा है|ठीक इसी प्रकार पुरातन से चली आ रही भारतीय परिधान साडी का भी आधुनिकीकरण कर के पुर्णतः पोस्टमार्टम   किया जा रहा है|साडी जिसमें नारी को एक सम्मान मिलता था,एक मर्यादा होती थी ,पांच मीटर की लम्बी साडी उस पर ब्लावुज़ जिसमें नारी सर से पावँ तक ढकती थी, वही साडी अब देख कर लगता है कि साडी में दोष है या फिर नारी में?
वर्तमान युग में टीवी का चलन हो गया है, जैसा उसमें कपडे पहनने का दिखाया जाता है हमारे यहाँ की महिलाएं उसे तुरंत अपनाती है|आजकल का फैशन इतना टीवी के सीरियल से जुड़ गया है कि यदि आप बाज़ार जाएँ तो दुकानदार साडी का नाम सीरियल के नाम से पूछता है कि आपको कौन सी साडी चाहिए?फिर साडी कि खरीददारी के बाद साडी पहनने कि बात आती है, तो फिर वही सीरियल आता है कि किसी x.y.z  सीरियल में किसी x.y.z ने कुछ हट कर साडी बाँधी थी  ठीक  उसी  प्रकार  साडी उन्हें भी चाहिए होती है|अब वो साडी ऐसी बाँधी गयी होती है कि शरीर का आधा से ज्यादा भाग खुला होता है तभी वो मॉडर्न  प्रतीत होते है|बाकि जो मर्यादा में साडी बांधते है उन्हें उपाधि दी जाती है "बहनजी टाईप " है|
आजकल नया रियल्टी शो शुरू हुआ है उसमें पन्द्रह लड़कियां  है शायद जिन्हें भारतीय परिधान साडी,घाघरा से बहुत लगाव है तभी तो कपड़ों का पूरी तरह चीरहरण  हो रहा है|कपड़े पहने जाते है शरीर को ढँक कर एक सुंदर एवम सुव्यवस्थित रहने के लिए|कपड़ों से नारी कि मर्यादा बढती है,कपडे चाहे सलवार कुरता हो, या पैंट कमीज़ हो या फिर साडी जैसे परिधान जब नारी सही तरीकों में रहती है तो भारतीय नारी किएक अलग शोभा बढती है|

कपड़ों का आधुनिकीकरण करो किन्तु ऐसा ना कर दो कि ना तो विदेशी रह जाये नाहि स्वदेशी में रह जाये|क्योकि  मर्यादा में रह कर किया गया प्रत्येक कार्य बहुत खुबसुरत होता है|

टीवी पर एक और नौटंकी शुरू "राहुल दुल्हनियां ले जायेगा" लेकिन कितनी बार ?

टेलिविज़न का शो आजकल बड़ा हिट जाता है और जाना भी चाहिए क्योकि नौटंकी के बादशाह लोग काम कर रहे है|अभी कुछ दिन पहले ही इमेजिन इण्डिया पर राखी सावंत का स्वयंवर दिखाया गया टी. आर. पी. बढ़ी,तो लो भईया एक और नौटंकी जनता जनार्दन के लिए ला दिया गया| इस बार लाया गया है राहुल महाजन को ,अब  जब इसका विज्ञापन दिखता है कि राहुल दुल्हनिया ले जायेगा........तो  दिल से हंसी कि एक फुहार निकलती है कि राहुल दुल्हनियां तो ले जायेगा लेकिन कितनी बार? एक बार इनका विवाह अग्नि के फेरों को लेकर वैदिक तरीके से हो चुका है, फिर इनकी लैला मजनूं कि कहानी दिखाई पड़ी बिग बॉस में, और अब एक और रियल्टी शो....इस बार तो राहुल कि दसों उँगलियाँ  घी में और सिर कढाई में है|पन्द्रह लड़कियों के बीच घिरे हुए राहुल महाजन ..
अब इन टीवी शो में कोई भी हया शर्म तो नाम मात्र भी नहीं रह गयी है हाँ ये एक अलग बात है कि कुछ लोगों के लिए शायद अच्छा  समय व्यतीत करने का साधन है |किन्तु कभी कभी सोच कर ये लगता है कि जो भी इनको देखता है वो किस चीज़ का बढ़ावा दे रहे है?  कम कपडे पहनने का या फिर वक्त कि बर्बादी का? क्योकि इन टीवी सीरियल से कोई नसीहत तो मिलनी नहीं है बदले में वक्त अलग बर्बाद होता है|अब इस राहुल महाजन के शो में  क्या नसीहत है कि हमारे युआ पीढ़ी को भी पन्द्रह बीस लड़कियां चाहिए? या फिर ये नसीहत है कि एक बार शादी  कर के आठ नौ महीने बाद तलाक़ करके फिर से रंगरेलियां मनाओ|जैसा कि बाहर राखी सावंत भी कर रही है|क्या इसका प्रभाव हमारी भोलीभाली जनता पर नहीं पड़ता|
आजकल टीवी और केबिल जिसमे कि प्रत्येक चैनल दिखाए जाते है|ये  हमारे ग्रामीण  इलाकों में भी दिखाए जाते है|वहाँ कि जनता बहुत भोलीभाली होती खासतौर पर ग्रामीण महिलाएं जो कि ना के बराबर पढीलिखी होती है वो सीरियल देखकर उसी प्रकार बनना चाहती है यहाँ एक और समस्या उठती है वो है ग्रामीण युवा पीढ़ी वो भी सपनों की दुनिया बनाने लगते हैं|ऐसे रियल्टी शो भोली भाली जनता पर गहरा  असर छोडती है| मुझे ऐसा लगता है कि कोई भी शो बनने से पहले एक बात ध्यान में होनी चाहिए कि हर शो प्रत्येक घर में चलता है और अब ये ग्रामीण इलाकों में भी पहुंच चुका है|ख़ैर......
अंत में आत्मा यही सोचने को मजबूर करती  है कि इमेजिन इण्डिया का अगला शो क्या होगा कि "राहुल महाजन एक और बार फिर से दुल्हनियां ले जायेगा????? "  

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

पश्चिमीसभ्यता को अपनाने की होड़ में आज की युवा पीढ़ी

वर्तमान समय में युवा पीढ़ी पश्चिमी सभ्यता को भारतीय संस्कृति से ऊँचा मानती है इसीलिए वहाँ का रहन सहन, खानपान,बोलने का तरीका,इत्यादि अपनाती है| युवा लड़के लड़कियां मदिरापान, धुम्रपान, को ही समाजिक जीवन बना लिया है|आखिर ये दिखावा क्यों इतनी तेज़ी से फैल रहा है?
हम ये मानते है की पश्चिमी देशों में लोग ज्यादा तेज़ दिमाग के होते है|इसका कारण है कि वो शुरू से खुले दिमाग के होतें है|वो मेहनत करते है|हमारी युवा पीढ़ी उनकी सकारात्मक सोच को नहीं अपनाती वो सिर्फ उन अवगुणों के पीछे भागती है जिसका हमारे जीवन से कोई सरोकार ही नहीं है|

आज बड़े शहरों कि बुरी हाल है जहाँ सडको पर भी धुम्रपान करते हुए लड़के लड़कियां दिख जाते  है|आज डिस्को का जमाना है वहाँ तो एकदम अंधेर मची है|ये पहले तो नहीं था|ये तो पश्चिमी देश से लाया गया भारत में नया इतिहास है| लड़कियां खुलेआम  शराब पी रहीं है,क्या यही भारतीय संस्कृति है?सिनेमा में लडकियों के कम कपड़ों का तो एकदम प्रचलन हो चुका है वही वेशभूषा बड़े शहरों में भी अपनाया जाने लगा है|क्या घर में लोगों को नहों दीखता?या फिर यूँ समझें कि ऐसा दिखाने के लिए ही पहना जाता है|

हमारी भारतीय सभ्यता में ऐसा क्या कमी है जिसे हमारी युवा पीढ़ी नहीं अपनाना चाहती ?शायद  हमारी सभ्यता में कोई भी कमी नहीं है,  कमी है तो केवल हमारी सोचमें, हम दिखावा में जीते हैं,कहीं हमें कोई कम न समझ ले, और यही मानसिकता अपने आने वाली पीढ़ी में भी हम डाल रहे है, ये हमारी सकीर्ण मानसिकता है शायद मेरे इस विचारधारा से सब सहमत न हो किन्तु यदि ध्यान से सोचा जाये तो ये यथार्थ है|

पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण करना बुरा नहीं है, बुरा है तो बुराई को अपनाना जो न तो सेहत के लिए अच्छा है न ही समाज के लिए|पश्चिमी सभ्यता से उन चीज़ों का अनुकरण करो जिससे सबका भला हो,उदाहरन के तौर पर यदि हम उनसे समय की पाबंदी सीखें तो शायद जिंदगी का सफल शुरुआत हो जाएगी|बुरी चीज़ अपनाना जितना आसन है उतना उसे छोड़ना कठिन होता है| हम भारतीय है हमें अपनी सभ्यता पर गर्व होना चाहिए, हमें खिचड़ी बन कर नहीं जीना चाहिए, हमे उस बासमती चावल की तरह बनना चाहिए जिसकी खुशबु कितने लोगों को आप तक खिंच कर लातीहै|

रविवार, 31 जनवरी 2010

किशोरावस्था में अनुशासनहीन होते बच्चे ...जिम्मेदार कौन????

आजकल प्रायः सुनाने में आता है कि हमारा बच्चा तो बिलकुल भी मेरा नहीं सुनता|बोर्ड की परीक्षा है किन्तु वो तो अपनी मनमानी करता है|किन्तु ऐसा होने में आखिर दोषी कौन है?

किशोरावस्था  में बच्चे बड़ों की तरह व्यवहार करना शुरू करने लगते है, उन्हें माता पिता की बात,उनकी दखलंदाज़ी अच्छी नहीं लगती|बाहर घूमना, बाहर का खाना,मित्रों के साथ बाहर रहना,स्कूल के बहाने घर से बाहर जाना इत्यादि बातें आम होती जा रहीं हैं|आजकल एक नया तरीका नेट का होगया है, जिसमे बच्चे अपना समय गवाते है|इसके पीछे शायद स्वयं माता पिता ही जिम्मेदार है|सबसे पहले हमें अपने बच्चों को समझना होगा, उनकी आदतें कहाँ से पड़ रही है|साथ ही हमें अपने बच्चों की कमियों को नज़रंदाज़ नहीं करनी चाहिए किन्तु साथ ही ये बात अवश्य ध्यान देनी होगी की हम अपने बच्चों की शिकायत दूसरों  से न करें , दूसरा आदमी आपका अपना नहीं है,वो आपके हटते ही आपका मजाक बनाएगा आपकी कोई मदद नहीं करेगा और दूसरी तरफ आपका बच्चा आपका विश्वास खोता जायेगा| किशोरावस्था के बच्चो का ध्यान बहुत रखना पड़ता है किन्तु उनसे मित्रवत व्यवहार करके|आप स्वयं को उनके स्थान पर रख कर देखो की आपने उस  उम्र में  क्या किया था फिर आप उनसे उम्मीदे लगाये|दूसरे के बच्चों की खूबियाँ अपने बच्चे में न ढूंढे अपने बच्चे की खूबियों को निखार कर लाये|

बच्चे वो फूल होते है जो की जीवन के बगीचे  में सवरतें हैं|फिर वो फूल गुलाब का हो या फिर सूरजमुखी सुंदर तो दोनों दिखते है तो फिर हम अपने बच्चे की तुलना दूसरे बच्चो से क्यों करे? 
 किशोरावस्था एकऐसी अवस्था होती है जहाँ बच्चे न तो छोटे में गिने जाते हैं और न ही बड़े  में|हमें सबसे पहले शुरू से अर्थात बचपन से जब बच्चा घुटनों पर चलना सीखता है तब से ही उसकी छोटी छोटी बातों पर ध्यान रखना चाहिए, बच्चा है तो जिद्द करेगा ही किन्तु हमें सयंम से ध्यान रखकर ही उसकी जिद्द को पूरी करनी चाहिए|

क्योकि आदत कि शुरुआत वहीँ से होती है|फिर बच्चे  के बड़े होने के साथ उन्हें जीवन के हर सही गलत की पहचान करवानी चाहिए| उन्हें जैसे वो बड़े हों तभी उन्हें अनुशासित जीवन का तरीका बताएं, साथ ही स्वयं भी अनुशासन में रहें|यदि हम स्वयं अपने से बड़ों को जवाब देगे तो बच्चा वही सीखेगा एवम बाद में पलट कर  जवाब देगा जो कि हमें अच्छा नहीं लगता और हम शुरू हो जाते है कि बच्चे तो हमारा सुनते ही नहीं|

किशोरावस्था में प्रवेश के पहले ही हमें बच्चों दुनियादारी के बारे में धीरे धीरे बताना चाहिए कि   जीवन में क्या गलत होता है|उनका मस्तिष्क विकार होने से पूर्व  ही हमें उनके मस्तिष्क का विकास करना चाहिए|यदि उनके मस्तिष्क में सकारात्मक सोच शुरू से बैठ गयी तो उनका जीवन दूसरों को भी रौशनी देगा|हमें उनकी भावनाओं को समझना चाहिए|किसी भी चीज़ का निवारण दंड नहीं होता इसे हमेशा ध्यान रखना चहिये|ये किशोरावस्था नदी की तेज़ वेग की लहर के समान होती है जिसमें  बहुत सयंम के साथ तैरना पड़ता है|
अंतमें मैं यही कहूँगी की बढ़ते बच्चों की जिम्मेदारी हम सभी की है जिसमें परिवार,विद्यालय,समाज,सभी जम्मेदारी ले तो बच्चे कभी भी अनुशासनहीन  नहीं बन सकते|

शनिवार, 30 जनवरी 2010

बच्चों कि जानलेवा नादानी,माता पिता कि बढती परेशानी

 आजकल समाचारों में सबसे ज्यादा खबर कम उम्र के बच्चों द्वारा आत्महत्या की   होता है,दिल दहल जाता है ऐसा क्या हो गया है कि बच्चों को ऐसा कदम उठाना पड़ रहा है?उनके माता पिता के लिए सोच कर लगता है कि उन पर क्या गुज़र रही होगी ? वो बच्चे के साथ ही ढेरों कल्पनाएँ कर लेते हैं कि मेरा बच्चा उचाईयों पर जायेगा,वो भी नाम कमाएगा ,इत्यादि | किन्तु ऐसे में जब असमय ख़ुदकुशी की खबर  तो  उनकी दुनिया सूनी  कर देती है|
लेकिन  प्रश्न  ये उठता है कि ये आखिर क्यों हो रहा है ?ये आत्मविश्वास कि कमी क्यों हो रही  है ? इसके पीछे किसे दोष दें ? ये हालात ऐसा क्या कर देता है कि इतने कम उम्र या यूँ  कहें कि कच्ची उम्र के ये बच्चे अपना जीवन समाप्त करने का कदम उठा लेते है?
इसका कारण शायद आत्मविश्वास,आत्मनिर्भरता, एवम आत्मसंयमता की कमी है | हमें अपने बच्चों को सीखाना होगा कि बुजदिल बन कर नहीं जीना है|  इसके लिए स्कूल कॉलेज भी जिम्मेदार है क्योकि आज जैसे रैगिंग पूर्णतः बंद हो चुकी है तब कॉलेज में रैगिंग कैसे संभव है | रैगिग चलने का मतलब स्कूल कॉलेज के प्रशासन की बहुत बड़ी लापरवाही है| अब रैगिंग के कारण यदि आत्महत्या जैसे शर्मनाक घटनाएँ होती है तो ऐसे में कॉलेज की तरफ से कड़ा कदम उठाना चाहिए | जिससे दुबारा ऐसी हरकत न हो | ख़ुदकुशी का दूसरा कारण अंक का कम आना है, इसके लिए घर परिवार स्कूल सभी जिम्मेदार हैं|बच्चों के ऊपर इतना दबाव मत दो की वो अपनी जिंदगी को ही अंक बना ले |
बच्चों को शुरू से ऐसी शिक्षा देनी चाहिए की ये जिंदगी इश्वर  की दी हुयी अनमोल चीज़ है | इसे सवांर कर रखना चाहिए| मुसीबत से लड़ना सीखो उससे मुंह मत मोड़ो| जिंदगी खोने के लिए नहीं बनी  है| प्रत्येक परेशानी एक सीख होता है ,एक पाठ होता है, सोना जब आग में तपता है तभी खरा होता है ठीक इसी प्रकार जिंदगी होती है जब परेशानियों को झेल कर आगे निकलती है तो एक चमकता हुआ सितारे  की तरह आती है|
अतः मुझे विश्वास है की लोग इस चीज़ को समझेगे ,परेशानी को दुसरो को बता कर हंस कर झेलेगे कभी भी गलती से भी कमज़ोर नहीं पड़ेंगे |

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

सगाई टूटी सानिया की,पेट दर्द से बुरा हाल मिडिया का.....


कल का सारा दिन मिडिया का बहुत व्यस्त था सानिया मिर्ज़ा की सगाई टूटने के मामले में|बिचारे सारी रात फोन लगाते रहे,किसी ने फोन नहीं उठाया देर रात या फिर बहुत सुबह किसी ने एस.ऍम.एस के जरिये YES लिख  दिया  तो तसल्ली मिली कि चलो आज की ब्रेकिंग न्यूज़  का चटपटा मसला मिला|

जीहाँ ये है हमारी मिडिया, जिसे दूसरों की निजी जिंदगी में ताक झांक करके मिर्चमसाला लगाकर खबर लाने की एक आदत सी हो गयी है|चलो यहाँ तक समझ में आता है की विश्व प्रसिद्ध हस्ती है आपने बता दिया कि आज सगाई है या फिर टूट गयी किन्तु उनके घर में क्या बन रहा है या फिर सेलिब्रेटी के घर कौन आया,वैगरह वैगरह |ठीक इसी प्रकार सगाई टूट जाने पर,अटकलें बताया जाना, यदि परिवार ने स्पष्ट रूप से आकर मिडिया को बुलाकर बताये तो बात समझ में आती है किन्तु अपने मनगढ़ंत तरीके अटकलें निकालकर बताना ये कहाँ तक उचित है?सानिया मिर्ज़ा अपने क्रीडा क्षेत्र में बहुत सफल खिलाडी है,उनका कैरियर है|उनकी अपनी निजी जिंदगी है,उनका अपना फैसला है जिसमे उनके घर वालों कि रजामंदी है तो फिर तीसरे को क्या परेशानी?

आज हम इसलिए ही पिछड़े हुए है क्योकि हम केवल दूसरों  के घर झांकना चाहते हैं और फिर भी संतुष्ट नहीं होते और उसमे से मसाला  ढूंढते है|यदि सही मायनों में हमें देश कि फ़िक्र हो तो एक नजर वृन्दावन  एवम मथुरा कि उन गलियों में भी डाल लो जहाँ बंगाल कि तरफ से आई हुयी कितनी बंगाली विधवा स्त्रियाँ रहती है उनको देखते ही आत्मा त्राहि त्राहि कर उठती है ..दिल रोता है कि नारी की ये दुर्दशा, केवल कुछ महिलाओं के बाहर आने से ,समाज पूरी तरह से बदल तो नहीं गया?लगता है इनकी कब और कौन सुधि लेगा?
मेरे ख्याल से मिडिया को किसी के निजी जिंदगी में इतनी दखलंदाज़ी नहीं करनी चाहिए क्योकि इसमें कभी कभी वो भी हंसी के पात्र बनते है जैसे सहवाग की शादी में कोई न मिलने पर घोड़ी के पास का कैमरा कभी भी नहीं भूलता लगता था की काश ये घोड़ी बोलती होती तो शायद इसके भी दिन फिर जाते और आज ये भी साक्षात्कार कर रही होती| ये तो मात्र एक उदाहरन था ऐसा आये दिन रोज़ होता कभी नाट्य रूपान्तर करके तो कभी किसी दूसरे रूप में| ख़ैर...... ये तो अपना अपना चॅनल चलाना है|किन्तु थोडा निजी जिंदगी को निजी जिंदगी ही रहने दिया जाये वहाँ वक्त न गवां कर अच्छे कार्य की शुरुआत की जाये तो ज्यादा पहचान मिलेगी|


मंगलवार, 26 जनवरी 2010

एक अच्छी शुरुआत IBN7 कि तरफ से

आज IBN7 पर एक आइडियल पुरस्कार दिखाया जा रहा था जिसमे विकलांगो, मानसिक विकार,मूक बधिर जैसे क्षेत्र में जिन्होंने कार्य करके एक मुकाम तक पहुंचाया  उन्हें ये पुरस्कार प्रदान किया गया| आज ये देख कर इतना अच्छा लगा की अभी भी हमारे यहाँ कुछ लोग ऐसे है जो इतना सोचते है|कुछ तो इसी से पीड़ित है इसमें एक सज्जन ने कहा जो की पोलियो के  शिकार हो गए थे की "जाके पाय न फटी बेवाई,वो क्या जाने पीर परायी" सही बात है इन्हें समझ पाना बहुत मुश्किल होता है|
इनका हौसला बढ़ाना ही सबका कर्तव्य है किन्तु इतना सोचने का वक्त मिलता कहाँ है लोगों को| किन्तु आज इन्हें जब पुरस्कार से नवाज़ा गया तो नयन से अश्रु न चाहते हुए भी निकल पड़े की चलो कभी किसी ने तो इनकी सुध ली|यदि इसी प्रकार पुरस्कार का सिलसिला चले तो और लोग भी आगे आयेगे, एवम समाज का कल्याण होगा|ख़ैर....आज का ये सम्मान दिल में इस प्रकार बैठा कि लगता है दुनिया में कितना गम है मेरा गम तो कितना कम है.....हम तो जबरदस्ती के टेंशन पालते है जबकि इस दुनिया में कितने लोग है जिन्हें ईश्वर के तरफ से ही कष्ट मिला है किन्तु वो इसे हंस कर झेल रहे है| हाँ कष्ट तब वाकई ज्यादा होता है जब सरकार की नाइंसाफ़ी होती है एवम समाज में भी दर्ज़ा नहीं मिलता|
किन्तु अंत में एक बार मैं  IBN7 कि इस कोशिश को सलाम करती हूँ और दिल से यही इक्षा रखती हूँ कि इसमें जितने ज्यादा लोग शामिल हो उतना ही अच्छा होगा इस समाज के लिए भी एवम इससे पीड़ित लोग भी आगे आ पायेगें|वो अपनी एक पहचान बना पायेगे|

कोचिंग पुराण


आज का युग प्रतिस्पर्धा का युग है|प्रत्येक ओर होड़ मची है, लोग लम्बे रेस के घोड़े की तरह दौड़ रहे है|इसके लिए तकरीबन नब्बे प्रतिशत बच्चे कोचिंग की तरफ भाग रहें है|अध्यापक भी कोचिंग में ज्यादा रूचि दिखाते है, क्योकि मोटी कमाई वहीँ होती है| आज प्रत्येक जगह पर एक कोचिंग का बोर्ड मिल जायेगा|
अब ये सवाल उठता है कोचिंग किस क्लास के लिए है?तो भाई अब आप लिस्ट देखिये|शुरुआत होती है नर्सरी क्लास से...यहाँ अच्छे विद्यालय में प्रवेश पाने के लिए कोचिंग शुरू हो जाती है| बच्चे को ढाई से तीन वर्ष  की उम्र में कोचिंग क्लास में डाल दिया| ताकि उसे प्रवेश मिल जाये| चलो येन  तेन  किसी प्रकार से एडमिशन मिल गया तो अब बारी आई पढाई की| अब माताएं स्वयं तो पढ़ी लिखी है किन्तु बच्चों को भेज दिया ट्यूशन में, अब समझ में ये नहीं आता की कक्षा नर्सरी से कक्षा पांच तक क्या घर में नहीं पढ़ाया जा सकता|फिर दूसरा प्रश्न यह उठता है की हम ये आदत क्यों नहीं डालते की यदि तुम्हें कोई चीज़ नहीं समझ आती तो आप विद्यालय के अध्यापक से समझो और पहले स्वयं समझने की कोशिश करो साथ ही माता पिता का ये कर्त्तव्य  है कि वो उनको समझाए वक्त दें |अपनी शिक्षा का प्रयोग करे स्वयं शिक्षित है इसका अहसास रखें|यदि घर में लोग अशिक्षित है तो बाहर से सहारा लेना  समझ में आता है किन्तु  स्वयं शिक्षित हो होकर बाहर ट्यूशन भेजना थोडा गले के नीचे बात नहीं उतरती|

अभी ये पुराण यहीं नहीं समाप्त होता, बच्चे दसवीं के लिए जी तोड़ मेहनत करते है वो भी प्रत्येक विषय के लिए कोचिंग जा कर रट रटा कर ज्ञान चाहे विषय का रत्ती भर भी न हो किन्तु नब्बे प्रतिशत कि होड़ में बच्चा खड़ा हो जाता है| दसवीं पास करते ही कैरियर का बोझ उस पर आजाता है| आज कि जानता भागती है आई आई टी की ओर इसके लिए एक और कोचिंग...इसके लिए आजकल लोग बंसल कोटा बच्चों को भेजना चाहते है| अब बंसल कोटा कोचिंग संसथान में एडमिशन हो इसके लिए वहाँ एक और कोचिंग है जो आपको बंसल में एडमिशन का दावा रखती है|अब बंसल कोटा ने अपने ब्रांच खोल दिए है उसमें भी मारामारी |अब प्रश्न ये उठता है की जितने भी ये कोचिंग संस्था ऊँची उठी  है वो क्या बिल्डिंग से ऊँची उठी है या फिर विद्यार्थियों से?


जी हाँ , विद्यार्थियों से ही विद्यालय, कोचिंग सभी की शोभा बढती है|ये विद्यार्थी परिश्रम करते है तभी आगे बढ़ते है| अतः ये हमें सोचने को मजबूर करता है कि हम जीवन में कब तक इन कोचिंग पर आश्रित रहेगे ?हम बच्चों को उनके पैर पर खड़ा होना क्यों नहीं सिखाते |आज अंक कि इतनी मारामारी क्यों है? क्योकि हमें संतोष नहीं है| यदि बच्चा स्वयं आगे बढ़े तो उसका विकास ज्यादा होगा नहीं तो कोचिंग का रटा रटाया ही उसे ज्ञान प्राप्त होगा |किन्तु एक बार फिर वही मुद्दा मै दोहराना चाहुगी कि ये कोचिंग कभी कम होगी कि नहीं क्योकि बच्चों का शारीरिक विकास इससे प्रभावित होता जा रहा है|

अंग्रेज़ चले गए लेकिन अंग्रेजी विरासत में छोड़ गए



आज गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर भी मस्तिष्क में न जाने क्यूँ एक उलझन है कि आखिर हम अंग्रेजी भाषा के दीवाने क्यों है?मैने बहुत से पुरुषों एवम खासतौर पर महिलाओं को देखा  है कि यदि अंग्रेजी में उनकी फीस माफ़ है तो वो ज़रूरत से ज्यादा कोशिश करेगीं इसमें सबसे बड़ा उदहारण  ड्रामा कि सरताज राखी सावंत है|ऐसी न जाने कितनी महिलाये है जो कि अंग्रेजी कि दीवानी है| भाषा सीखना अच्छा है किन्तु उसे बनावटीपन से दिखावा करना गलत है| कुछ लोगों को मैने देखा है कि सिर्फ ये दिखाने के लिए अंग्रेजी बोलते है कि कहीं उन्हें कोई  हिंदी माध्यम से या फिर स्टेट की भाषा के माध्यम से पढ़ा हुआ न समझ ले|
यहाँ तक कि आज के बच्चे भी स्टेटस का दिखावा करने में पीछे नहीं हटते|ऐसा क्यों  हो  रहा है? हमें दिखावे कि ज़िन्दगी ही क्यों पसंद आती है|हम आज गणतंत्र दिवस मना रहे है,किन्तु सही मायनो में हम अभी भी अंग्रेजी के ही गुलाम है|आज यदि बच्चों को रामचरित मानस पढने को दे दी जाये तो एक चौपाई पढने में पांच मिनट से ज्यादा लगा देगे फिर भी उसका अर्थ न बता  पायेगे|आज कि स्थिति ये हो गयी है कि अंग्रेजी माध्यम से पढने  वाले बच्चों से यदि आप पूछें कि आपको कौन सा विषय अच्छा नहीं  लगता? अधिकांश बच्चे जवाब देगे कि हिंदी|जब हम हिंदी बोलते है,वो हमारी राष्ट्र भाषा है तो पढ़ते समय उसमें अनिक्षा क्यूँ|इसका कारण हम स्वयं है जब बच्चा छोटा होता है छोटी कक्षा में होता है ,तो हम आने वालों को बखान कर के बताते हैं कि देखो हमारा बच्चा अंग्रेजी के सब अक्षर जानता है थोड़ी  हिंदी में मात्रा गलत करता है लेकिन अंग्रेजी में कोई गलती नहीं होती उसकी अंग्रेजी कि लिखावट भी बहुत सुंदर है..वैगरह  वैगरह....इसका कारण सिर्फ एक है कि हम ये दिखावा करते है कि जो हमने नहीं किया वो हमारा बच्चा बचपन से कर रहा है|यही बच्चा बड़ा होता है तो बचपन कि बात को तकिया कलाम बना लेता है कि हिंदी तो हमसे झेली नहीं जाती|
जबकि भाषा पर एक समान अधिकार होना चाहिए|इस पर एक कहानी याद अति है कि एक बार अकबर के दरबार में एक सज्जन पुरुष ने आकर दावा किया कि कोई मेरी  मातृभाषा बता दे तो मै समझूँ कि वो बहुत बुद्धिमान है|जैसा सभी जानते थे किबीरबल इसका जवाब दे सकते है इसलिए  बीरबल को बुलाया गया| अब बीरबल ने बहुत कोशिश किया जानने का किन्तु उसको सारी भाषा का इतना ज्ञान था कि वो सारी भाषाए  धाराप्रवाह बोलता एवम लिखता था, बीरबल असमंजस में थे कि क्या करूँ उन्होंने कहा कि ठीक है भैया आप जीते मै हारा| वो बंदा बहुत खुश हो गया भोजन  करके रात्री विश्राम करने गया |आधी रात के बाद बीरबल कुछ लोगों को लेकर वहाँ पहुंचे एवम उस पर पानी  फेंका, वो घबडा कर अपनी मात्री भाषा बंगाली में बोल उठा 'अरे बाबा के आछे' बीरबल तुरंत बोल पड़े तुम बंगाली हो|वो बीरबल का पांव पकड़ लिया बोला आपने सही पहचना किन्तु ये महान कार्य केवल आप ही कर पाए|बीरबल हंसने लगे और बोले कि अचानक नीद से जागने पर अपनी ही भाषा सबसे पहले आती है इसलिए ही मै रात्रि का इंतजार कर रहा था|


कहने का तात्पर्य बस इतना है  कि भाषा सीखना अच्छी बात है किन्तु केवल अंग्रेजी को ही क्यों तुल दें|अंग्रेजी सीखो लेकिन समाज में दिखाने या फिर यूँ कहें कि मॉडर्न बनने के लिए नहीं|भाषा ज्ञान बढ़ाने के लिए होती है न कि नुमाइश करने कि कोई वस्तु होती है|  अन्यथा दिल यही कहता है कि अंग्रेज़ तो चले गये किन्तु अंग्रेजी विरासत में छोड़ गए.......भाषाएँ सब सीखो इतनी धाराप्रवाह  बोलो की कोई आपको पहचान न पाए क्योकि ज्ञान अनंत है

सोमवार, 25 जनवरी 2010

गणतंत्र दिवस 26 जनवरी

  
कल 26 जनवरी को हम 60 वाँ गणतंत्र दिवस हर्षोल्लास के साथ मनायेगे|कार्यालय,विद्यालयों,सरकारी विभागों में झंडे फहराए जायेगे प्रत्येक वर्ष की भांति कार्यक्रम दोहराए जायेगे|किन्तु क्या सही मायनो में हम गणतंत्र दिवस मना रहे है?हम रटी रटाई चीजों को सिर्फ दोहरा रहे है|हमने एक प्रथा बना ली है कि हमें स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस मनाना है|यदि आज के युग के छोटे बच्चों से पूछो कि 26 जनवरी हम क्यों मनातेहै?तो जवाब आएगा कि 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस....अरे sorry नहीं गणतंत्र दिवस मनाते है...आगे की कहानी उनको मालूम नहीं क्योकि उन्हें अपने कार्यक्रम देने है बाद में एक मिठाई खानी है|

६0 वर्षों में बहुत बदलाव आया ,कुछ बहुत अच्छे थे ,जैसे राकेश शर्मा प्रथम  भारतीय थे जो की चाँद पर गए, फिर कितने भारतियों ने एवरेस्ट पर तिरंगा  फहराया, इत्यादि | 60 वर्ष  पूर्व  लिखे गए सविधान से सबको बहुत सुख सुविधा मिली डा. आंबेडकर की परिश्रम सफल हुयी थी| किन्तु धीरे धीरे ऐसा लगता है की हम रस्सा कसी में  फंस रहे है|इतनी घटनाये घट रही है की लगता है  सविधान एवम कानून एक तरफ हो गया है एवम ज़ुल्म का बोलबाला होता जा रहा है|रक्षक ही भक्षक बनते जा रहे है|
हमारे नेता जिन पर सविधान की रक्षा की जिम्मेदारी है वो स्वयं में ही व्यस्त है|आये दिन कोई न कोई चटपटी खबर नेताओं को लेकर मिडिया में तो आती रहती है| ख़ैर......ये तो समाज की बात है|अब कभी कभी  लगता है कि ये इतिहास क्या है?आज का सत्य कल का इतिहास बनता है|आज से ६0 वर्ष पूर्व आज के दिन बाबा साहेब कितने प्रसन्न रहे होगे की उन्होंने कितने अच्छे तरीके से सविधान बनाया है उनका सपना सत्य हो रहा था जो उन्होंने कष्ट सह कर देखा था| हम लोगो ने भी इतिहास में यही पढ़ा था कि हम स्वतंत्र कैसे हुए,बाबा साहेब कि शिक्षा कैसे हुयी, मुग़ल काल क्या था? "मॉडर्न हिस्ट्री" में हम अंग्रेजो के बारे में पढ़ा.....साथ ही थोडा और आगे| किन्तु आज के युग में हो रहे ज़ुल्म ही कल का इतिहास है|क्या  हमारे बच्चे या फिर उनके बच्चे इतिहास में ये ज़ुल्म पढ़ेगें? या फिर राज्यों कि बंदर बाँट के बारे में?कि भारत में इतने राज्य है और उनकी राजधानी ये है |अगर राजधानी गलत हो गयी तो अंक कट जायेगे|और सबसे बड़ा इतिहास जो बनेगा वो है आपस कि तू तू  मै मै.....
सविधान जितने प्यार से लिखा गया है उतने ही प्यार से हमें इसकी रक्षा करनी चाहिए|ये प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्य है कि अपराध न तो करे न ही सहे, कानून कि रक्षा करे. सविधान को सम्मान दे|उन भारत के नगीनों को सम्मान दे, जिन्होंने आज़ादी के लिए प्राणों को न्योछावर कर दिया| आपस में ही हम क्यों लड़े राज्य अलग है किन्तु हम है तो भारतवासी| हम सभी लहराते है वही तिरंगा प्यारा| हम सब एक है|
तो आईये गणतंत्र दिवस कि पूर्व संध्या पर यहीसंकल्प ले कि हम सभी सविधान कि रक्षा करेगे, न तो कानून तोड़ेगें न ही कानून तोड़ने वालो को बक्शेगे|

 आप सभी को गणतंत्र दिवस की शुभकामनाये|जय हिंद !!!

शनिवार, 23 जनवरी 2010

हमारी सरकार


आज 23 जनवरी है नेता जी सुभाष चन्द्र बोस का जन्मदिवस| बहुत उम्मीदों के साथ भारत को आज़ाद करवाने में योगदान दिया था| शायद उन्होंने कभी भी ये नहीं सोचा होगा कि आज़ादी के साठ वर्ष के पश्चात भारत में सरकार कि क्या हाल होगी और नेताओं के बीच आपसी तालमेल कैसा होगा?आज मै सोच रही थी कि आज कि सरकार क्या है तो मेरे शब्द कविता के रूप में आगये|जो कुछ इस प्रकार बने.....
आज कि सरकार,देती है सबको कार,
किन्तु स्वयं है बेकार,
सब है राजनेताओं से परेशान
फिर भी नहीं खड़े होते इनके कान,
जब जब महंगाई बढती है हम जैसी जनता पर तलवार लटकती है
चुनाव के मौसम आते ही मच्छर मक्खी  की तरह नेता भिभिनाने लगते है,
चुनाव निकाल जाने पर वादा कभी नहीं निभाते है|
नेताओं की  इनकम दिन पर दिन बढती जाती है,
जनता की जेब खली होती जाती है,
राजनेता हो या अभिनेता,सबके पास है धन की भरमार,
केवल फंसती है देने में इनकम टैक्स भोली भली बेचारी जनता बारम्बार,
ये तो  दुहाई देती है आज की सरकार
अपनी मनमानी करती है बार बार,

यही तो है हमारी सरकार......

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

आज की मिडिया, ज्योतिष, एवम तर्कशास्त्री

आज की मिडिया ऐसी हो गयी है कि यदि कभी वक्त न कट रहा हो तो किसी भी NEWS CHANNEL के सामने बैठ जाओ कुछ न कुछ चटपटी खबर मिल ही जाएगी बशर्ते देश में कोई हलचल न हो|आजकल ज्योतिष एवम तर्कशास्त्रियों के बीच मिडिया का एक अहं भूमिका हो गयी है आपस में हलचल  करवाने का|जबकि हकीकत यह है कि विज्ञान भी सच है,एवम ज्योतिष भी|रही बात सड़क छाप ज्योतिष कि तो झोला छाप डाक्टर , सडक छाप ज्योतिष दोनों पर विश्वास नहीं किया जा सकता|नीम हकीम खतरे जान....|लेकिन जब ज्योतिष के बारे में कोई गलत तरीके से बोलता  है तो आत्मा  रोती है कि आज हम अपने ज्योतिषाचार्यों का शायद अपमान कर रहे है|
किन्तु प्रोफेसर यशपाल जी जैसे विद्वान का तर्क जब हम सुनते है तो ये लगता है कि तर्क हो तो ऐसे ही विद्वान के साथ हो जो सम्मान देते है प्रत्येक विषय को |वो अपनी बात को ऊपर करते है किन्तु  ज्योतिष ज्ञान को भी सम्मान देते है|वो इन्सान और ज्ञान को ठेस नहीं पहुचने देते |इसी प्रकार ज्योतिष का ज्ञान जानने के लिए पुराने इसी विद्या में मंजे  हुए ज्योतिष कि तलाश करनी चाहिए|क्योकि किसी भी प्रकार का ज्ञान कभी भी 100% नहीं होता क्योकि प्रत्येक विषय का शोध लगातार होता रहता है|
कहने का तात्पर्य यह है कि शब्दों का खेल है हम यदि मीठा बोलेँ तो बुरी बात भी शायद आत्मा को ठेस नहीं पहुचायेगी|

आखिर हम दूसरों पर आश्रित क्यों है???



मानव जीवन ईश्वर  का दिया एक अनमोल उपहार है,जिसमें मनुष्य को जो सबसे कीमती वस्तु प्राप्त होती है वो है मस्तिष्क जिससे हम विचार कर सकते हैं अच्छा,भला  बुरा अपने जीवन को सँवारने का तरीका सोच सकते है, किन्तु फिर भी हम दूसरों पर ही आश्रित होते है|क्योकि हमें स्वयं से ज्यादा दूसरों पर भरोसा होता है |हमें अपने माता पिता सगे सबंधियों से ज्यादा तीसरे आदमी पर भरोसा होता है,जिसे हम ठीक तरीके से जानते भी नहीं|
हमें कैसे  जीवन व्यापन करना चाहिए  ये सभी जानते है किन्तु अपनाने के लिए हमें 'ART OF LIVING' में जाना होता है||जब  घर  में  माँ सुबह सो कर उठने को कहती है तो खराब लगता है किन्तु संस्था में जाकर हम नियम का पालन करते है और दूसरों को भी बताते हैं|
इसी प्रकार हम प्रवचन सुनने जाते है जहाँ यह बताया जाता है की हमें लोभ से दूर रहना चाहिए मायाजाल में नहीं फसना चाहिए इत्यादि नाना प्रकार के तरीके बताया जाता है किन्तु आप जरा ये सोचिये की जो प्रवचन दे रहा है वो कितना बड़ा ढोगी है जो स्वयं मायाजाल में फंसा है , बड़ी गाड़ी, महंगा फोन साथ में सेवा करने वाले इतने सहयोगी,वाह भाई वाह खुद को मायाजाल में फंसे हो तो दुसरो को भी  ऐश करने दो ,ये तो हम स्वयं सोच सकते है कि हमें जीवन में किस प्रकार रहना चाहिए इसके लिए प्रवचन कि क्या आवश्यकता?
पहले हम अपने खाने पीने के तरीकों को ठीक से नहीं रखते कोई व्यायाम नहीं करते, उम्र के बढने के साथ मोटापा बढ़ता है तो हमें VLCC जाना पड़ता है जिसमें आधा वजन उनके व्यायाम एवम प्रतिबंधित आहार से आधा वजन उनके दिए हुए बिल से कम हो जाता है|यदि हम शुरू से ही जुबान से ज्यादा स्वास्थ्य को ध्यान में रख कर भोजन करे एवम नित्य व्यायाम करे तो आखिरी में बाबा रामदेव कि याद नहीं आएगी|

आज का युग प्रतियोगिता  का  युग  है , प्रतिस्पर्धा  का  युग  है|प्रत्येक बच्चा एवम उसके माता पिता इसी होड़ में लगे है कि उनका बच्चा इंजिनियर बन जाये, इसके लिए वो अंधे दौड़ में भाग रहें हैं|इसके लिए बच्चो को कोचिंग पर कोचिंग करा रहे है यदि उन्हें सही तरीके से परख ले तो शायद कोचिंग पर आश्रित नहीं होना पड़ेगा और बच्चे को सही दिश भी मिलेगीकहने का तात्पर्य यही है कि ईश्वर ने जब हमें बुद्धि  दी है तो केवल दूसरों पर ही मत आश्रित हो थोडा स्वयं भी सोचो किसी बड़े कार्य के लिए दूसरों का सहारा लो किन्तु क्या पग पग पर दुसरो पर आश्रित होना उचित है??? ये जीवन के कुछ अहम पहलु थे जिसमे हम दूसरों का सहारा लेते है ऐसे ही और भी बहुत से पहलु है जिसे हम दूसरों के सहारे  पर जीना चाहते है|

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

कर्मफल


पाप और पाराकोई नहीं पचा सकता

यदि कोई छिपाकर पारा कहा ले, तो किसी न किसी दिन वह शरीर से फूट कर निकलेगा|
पाप करने से उसका फल एक न एक दिन निश्चय ही भोगना पड़ेगा|
रेशम के कीड़े जैसे अपनी लार से अपना घर बनाकर आप ही उसमें फंसता है, वैसे ही संसार के जीव भी अपने कर्मपार्ष में आप ही फंसते है|
जब वे रेशम के कीड़े तितली बन जाते है, तब घर को काटकर निकाल आते हैं; इसी प्रकार विवेक और वैराग्य के उदय होने पर बढ़ जीव भी मुक्त हो जाते हैं|
इसी प्रकार एक बार एक महात्मा को लगा कि लोग कहते हैं गंगा स्नान से सारे पाप धुल जाते हैं यदि ऐसा होता है तो पाप कैसे रुकेगा, ये सोच कर वो महात्मा गंगाजी के पास ये प्रश्न ले कर गए
उन्होंने गंगा जी से ये प्रश्न पूछा कि लोग कहते हैं कि आप का स्नान करने के पश्चात सारे पाप धुल जाते है तो क्या आप सारे पाप को रखती हैं|
गंगाजी ने हंस कर उत्तर दिया कि नहीं मैं तो जा कर समुद्र में मिलती हूँ इस प्रश्न का जवाब तो समुद्रदेव ही दे सकते है|
महात्माजी समुद्र देव के पास गये एवम ये प्रश्न दोहराया तो समुद्रदेव ने गंभीरता से जवाब दिया जिस प्रकार गंगाजी मुझमें मिलती है और सारा पाप यहाँ आता है उसी प्रकार मुझसे ही बादल बनता है तो सारा पाप उधर जाता है, आप बादल से पूछ लो
महात्माजी कि उत्सुकता और तीव्र हुयी और उन्होंने बादल से पूछा कि क्या आप के पास सारे पाप आते हैं|
तब बादल ने जवाब दिया कि नहीं जैसे सबके पास से पाप हमारे पास आता हैं वैसे ही मैं फिर से उनके घर आंगन में बरसा देता हूँ|
अतः जिसका पाप है दंड उसी को भोगना है प्रयाश्चित भी उसे ही करना है|

कहने का तात्पर्य ये है कि हम जैसा करते है हमें फल वैसा ही प्राप्त होता है|
गंगा स्नान या फिर पूजा पाठ से पाप धुलता या काम नहीं होता किसी न किसी रूप में हमें दंड मिलता ही है|