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गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

जिन्दा रहने पर पानी को तरसाए, मरने के बाद करे हो हल्ला से श्राद्ध

ये वाक्य पढ़ कर थोडा अजीब लगता है किन्तु वास्तव में आजकल ऐसा ही देखने एवम सुनने को मिलता है|कभीकभी बहुत आश्चर्य होता है कि आखिर लोग बदल कैसे जाते हैं| माता पिता कि तरफ से मुख कैसे मोड़ लेते है?जिम्मेदारियों से कैसे मुकर जाते है?मेरा एक अनुभव ये भी रहा है कि जिन माता पिता को पुत्री से ज्यादा पुत्र कि चाह होती है वो बाद में ज्यादा पीड़ित होते है|ये मेरा केवल अनुभव है, ये सच है ऐसा मैं नहीं कहती हूँ|लेकिन ये अनुभव कि जिदा रहने पर खाना पानी को भी लोग नहीं पूछते एवम मरने के बाद तुरंत शुरू हो जाती है मृतक के सारे सदगुण फिर  नकली आँसू उसके बाद श्राद्ध की तैयारी जैसे कोई बेटा  बेटी की शादी हो| बाद में सबके आगे अपनी बडाई करना कि श्राद्ध में तीन हजार लोगों ने खाना खाया|
ऐसा ही किसी के माँ के साथ हुआ था मुझे आज भी  याद हैकि उस लड़की को अपनी माँ कि बहुत चिंता थी वो सिर्फ मजबूर थी क्योकि भारतीय परम्परा में दोनों बँधे थे माँ बेटी के घर आने को तैयार नहीं थी वो अपने बेटे के पास ही रहना चाहती थी और बेटी को पीहर में ये कष्ट था कि वो भाभी के राज्य में माँ के लिए दिल खोल कर सेवा नहीं कर सकती थी| समय बीतता गया कष्टों को झेलती एक दिन बूढी माँ ने प्राण त्याग दिए|घर से किसी को चिंता नहीं हुयी कि बेटी को भी खबर कर दी जाये| तीन दिन बाद उसे किसी बहरी आदमी ने आकर बताया|बेटी ये सुनकर मूक बन गयी, उसने सोच लिया कि अब जब माँ नहीं है तो हम  वहाँ क्यों जायेगे, वो नहीं गयी|श्राद्ध हो जाने के बाद एक दिन उसका भतीजा आया और बताने लगा कि श्राद्ध नहीं वो तो ब्रह्मभोज लग रहा था,काफी गुणगान सुनने के बाद उस बेटी ने एक ही प्रश्न किया इतने लोगों ने खाना खाया उस पंगत में मेरी माँ कितनी बार बैठी और भोजन किया?उसके पास कोई जवाब नहीं था....... 
ऐसा वाकया बहुत मैने सुना और देखा है कुछ की मदद भी की,लेकिन ये सिलसिला कब तक चलेगा?ये दिखावा ,अपनी जिम्मेदारियों से परे हट कर|कुछ लोग पैसा भेजना ही अपनी जिम्मेदारी समझते है|वृद्धावस्था  में हाथ पैर की सेवा ज्यादा जरूरी होता है|यदि आप और आपकी  पत्नी दोनों नौकरी में हो समय नहीं दे सकते तो कम से कम ऐसी नर्स रख दो जो उनका ध्यान रख सके सुबह शाम आप भी हाल पूछ लो लेकिन कुछ तो ध्यान दो...अपनी जिम्मेदारियों से यूँ ना मुख मोड़ो.....श्राद्ध में केवल पांच ब्राह्मण खिला दो लेकिन जिन्दा रहते उन्हें घिसटने पर ना मजबूर करो...... नहीं तो बाद में वही कहावत चरित्रार्थ होगी की "बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होए"...

3 टिप्‍पणियां:

  1. यह वास्तव में हमारी टिपिकल इंडियन हिप्पोक्रेसी को दर्शाता है ."जिंदे को तिल नहीं , मरने के बाद तलोए " एक पुरानी कहावत है.

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  2. कुछ तो इतने नालायक होते हैं कि मरने के बाद भी श्राद्ध नहीं करते। बस कविता करते हैं। साहित्‍य में जो देखो वो माँ पर कविता लिखता है, लेकिन असल जिन्‍दगी में? कितनी माँ हैं जो सही मन से कहती हैं कि मेरे बेटे ने मेरी सेवा की। शायद मुठठी भर।

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  3. वैसे जब हमने समाज के इतने नियम बदल दिए हैं तो फिर यह बटियों के घर न रहने वाला नियम भी तोड़ देना होगा.भाई या भाभी की बुराई करना जितना सरल है माता पिता का ध्यान रखना उताना ही कठिन है. यदि हम भाई भाभी के साथ यह जिम्मेदारी बाँट लें तब तो कोई बात बने.
    घुघूती बासूती

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